पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/४४०

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(५६) राजा रत्नसेन बैकुण्ठवास खंड तहौ लहि साँस पेट महें प्रही। जौ लहि दसा जीउ के रही । काल आाऊ देखराई साँटी। उरि जिउ चला छोडि के माटी । काकर लोग, कुढंव, घर बारू । काकर अरब दरब सारू । श्रोही घरी सब भएड परावा। मापन सोइ जो परसा, खावा . अहे जे हितू सा’ के नेगी । सवे लाग काढ़े तेहि बंगी . हाथ झारि जस चले जुवारी । तजा राजहोइ चला भिखारी ॥. जब हृत जीड, रतन सब कहा। भा बिनु जीड, न कौड़ो लहा । गढ़ सौंपा बादल कहेंगए टिकटि बसि देव । छोड़ी राम अयोध्या, जो भावे सो लेब ॥ १ ॥ -- ०: (१) साँटी = ड़ी । आापन सोइ. ..खावा = अपना अही खाया हश्रा जो और दूसरे को खिलाया। नेगी = पानेवाले । हत = टिकठि = टिकठी, था । अरथी जिसपर मुरदा ले जाते हैं । देव = राजा । जो भावै सो लेव =जो चाहे- सो ले।