पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/४६४

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२८२
अखरावट

२८२ जा जानह जिउ बसे सो तहवाँ। रहै कंबल हिय संपुट जहँवाँ ॥ दोप जैस बरत हिय ऑारे। सर्वे घर उजियर ते िउजियारे ।। तेहि महें श्रेस समानेउ थाई । सून सहज मिलि थावे प्राई ।। तहरी उठे धुनि आाउ ारा । अनहद सवद होइ झनकारा ॥ तेहि महूँ जोर्ति अनूपम भाँतो । दीपक एक, बरं दुइ वाती ॥ एक जो परगट होई उजियारा। दूसर गुपुत सो दसवें दुबारा ॥ मन जस , आासु तेलदम टेमप्रेम जस दीया । , बाती कीया ॥ दोहा। तहँव तम जस भंवराफिरा करे चहें पास । मोड़ पवन जब पहुंचे, लेइ फिरै सो त्रास ॥ सुनहु बचन एक मोर, दीपक जस गारे बरै । सव घर होइ अंजोर मुहमद तस जिउ हीय महें 1३२॥ रा रातः तेहि के वेगि लागु प्रीतम के संगा | । चव । रंगा। अर उध अस है दुड परगट हीया । , गृहुत बड़े जस दीया ॥ परगट मया मोह जस लावै गुपुत . । सुंदरसन श्राप लखावे ॥ अस दरगाह जाइ नहि पैठा। नारद पंवरि कतक लेइ बैठा ॥ ताकह मत्र एक है साँचा। । जो वह परे जाई सो बाँचा पट्टे सो लेइ लेइ ना। नारद छाँड़ेि देड़ सो ठाऊँ। बकरे हाथ होड़ वह ली । खोलि केवार ले सो पू जी ॥ दोहा। उघरे नैन हिया करमाले , दरसन रात । देन्नै सो श्री it चन चौदही, जाने सब बात ( ३२) कंवल हिय = सुषुम्ना नाड़ी परजो हृदय कमल । है । मारे ग्राल पर। श्रेस - वहा । सन्न = शन्य । सहज = प्रगति । ग्राउंकार = ऑोंकार प्रणव । सबद = अनाहत का अंश निर्गणश्रव्यक्त ब्रह्मसत्ता । यह अंतश्रादि इंद्रियों स्य नाद ग्राँख, को बंद करके नहद नाद कान, नाक के व्यापारों ध्यान करने से सुनाई पड़ता है। । - दसवें = वहर । टेम दीपक की ली । ग्रामुलूट दृढ़ बाती एक तसँखो, दूसरी बहिर्मुखी सो बास = जोव जो हृदय कमल में सुगंध के समान है । ", प्राण। दम = श्वास । १. भाटांतर--जि है । (३३) अरध.होय = मन या हृदय एक अंतर्रुख है बहिर्मुख अंतर्मुख से ग्रात्मस्वरूप का ज्ञान होता है और बहिर्मुख से बाह्य जगत् के विषया दूसरा का। नारद = शैतान । कटक काम, क्रोध, मोह आादि । = (ध) । सो यूजी - अर्थात ईश्वर का दर्शन । ग्राठे दरसन रात 1 दर्शन कर जिसके पाकर ग्रानंदमग्न हो ।