पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/४८७

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श्रावि गे कलाम ३० ५ 'मुनहु रसूल बात का कहीं। ही अपने दुख बाउर रहों ॥ ‘के के देखे बहु ढिठाई । मुंह गरुवाना खात मिठाई । 'पहिले मो दीन्हा कहें आाय । फर से मैं झगरा कीन्हा । ‘रोधि नील के डारेसि झुरा। फुर भा झूठ, झूठ भा छुरा ॥ ‘पुनि देखें बठि पठाएंगे। दो दिसि कर पंथ न पाए? । ‘मुनि जो मो कह दरसन भए । कोह नूर रावट होइ गएऊ । ‘भाँति अनेक मैं फिर फिर जाना । दावैन अंपा र के लीन्हेसि । ‘नरति वैन में देखों, कतm परे नहि मूति ‘रह लजाह, !वात कहीं का वनि' ?1 ३५ । महम्मद दौरि दौरि सवहीं पहूँ । जै हैं। उतर देइ सब फिरि बहहैं उत्तर पवयों ईसा कहिन त्रि कस ना कहत्यों। जो कि कहे के ॥ में जिर दान दियावा मुए मानुस बहुत जियाबा। श्री बहुगे । इब्राहिम कहकस ना कहत्यओं । बात कहे विन मैं ना रहयों मोस थे न ध जो खेला। सर रचि बाँधि अगिन मह मेला ॥ तहाँ अगिन - त भाई वारी । अपडर ड, न परहैि भारी ॥ नह कहिन, सब जब परले टावा। जग वह, नावा ॥ रखें बढि काह भार । ताह री, वे ओोडाउब जस में बने ‘हम्मद’, कहे आापन निस्तार ॥ ३६ ॥ सर्दी भार ग्रस ठेलि औोड़ा हाउब । पिरिफिरि कहब, उतर ना पाउब ॥ पृान रसूल हैं दरबारा। पंग मारि हें कब पुकारा। तें सब जानसि एक गोसाईं। कोई न आाध उमत के ताई ॥ जेहि सो कहीं स प होड़ है। उमत लाइ केह बात न मोर टांड़ केह न चाँड़ा। देखा दुखसबहो मोहि ड़ा , महैि अस नहीं लाग बरतारा। तोfह होइ भल सा३ निस्तारा जो दुख चहसि उमत कहें दीन्हा । सो सब मैं अपने सिर लीन्हा। (३५मुंह गरुवाना ) .मिठाई = कृपा की माँगते मुंह भिक्षा माँगते भारी हो गया है, अब और मुंह नहीं खुलता। * = का फरमिस्र बादशाह जिसने इसराईल की संतानों को बहुत सताया था और वे मूसा के नायकत्व भागे थे (जब मिस्र को सेना ने उनका गोध तब खुदा ने किया था उनके लिये तो नील नद या समुद्र का पानो हटा दिया था, पर भिली सेना के सामने उसे और बढ़ा दिया था) । रोधि = रोककर। फुर = 4 , सत्य ग। कोह तूर = वह पहाड़ रावट महल, जिसपर मूसा को ईश्वर की ज्योति दिखाई पड़ थीं। । जगमगाता स्थान । जापा, पुकारा हर : हर अवसर । दाँवन पर । पा = परदा, चोट । (३६) बहहै बलाएगा । सर = चिता। (३७) मार डाल ओोढ़ाउब = भार गुहम्मद पर ही डालेंगे । पैग मारि = अ।सन मारकर । केंद्र कोई (अवधी) चाँड़ = चाह, कामना। तहीं =तु ही। ऐंजन =पीड़ा, सांसत ।