इस सहानुभूति की संभावना रानी के हृदय में होती कैसे है? यह समझकर होती है कि भौंरा और कौवा दोनों उसी विरहाग्नि के धुएँ से काले हो गए हैं जिसमें मैं जल रही हूँ। सब दुःखभोगियों में परस्पर सहानुभूति का उदय अत्यंत स्वाभाविक है। 'संदेसड़ा' शब्द में स्वार्थ 'ड़ा' का प्रयोग भी बहुत ही उपयुक्त है। ऐसा शब्द उस दशा में मुँह से निकलता है जब हृदय प्रेम, माधुर्य, अल्पता, तुच्छता, आदि कोई भाव लिए हुए होता है। 'हे भौंरा!' 'हे काग!' से एक एक को अलग अलग संबोधन करना सूचित होता है। आवेग की दशा में यही उचित है। 'हे भौंरा औ काग' कहने में यह बात न होती।
दुःख और आह्लाद की दशा में एक बड़ा भारी भेद है। जब हृदय दुःख में मग्न रहता है तब सुखद और दुःखद दोनों प्रकार की वस्तुओं से दुःख का संग्रह करता है। पर आनंद की दशा का पोषण केवल सामान्य या आानंददायक वस्तुओं से ही होता है, दुःखप्रद वस्तुओं से नहीं। विरहदशा दुःखदशा है। इसमें कष्टदायक वस्तुएँ तो और भी कष्टदायक हो ही जाती हैं, जैसे—
(क) काँपै हिया जनावैं सीऊ। तो पै जाइ होइ सँग पीऊ॥
पहल पहल तन रूई झाँपै। हहरि हहरि अधिकौ हिय काँपै॥
(ख) चाहिहु पवन झकोरै आगी। लंका दाहि लागी पलंका॥
उठै औगि औ आवे आँधी। नैन न सूझ, मरौं दुख बाँधी॥
सुखदायक वस्तुएँ भी दुःख को बढ़ाती हैं, जैसे—
कातिक सरद चंद उजियारी। जग सीतल हौं बिरहै जारी॥
चौदह करा चाँद परगासा। जनहूँ जरै सब धरति अकासा॥
तन, मन, सेज करे अगिदाहू। सब कहें चंद भयहु मोहि राहू॥
कहीं संयोगसुख या आानंदोत्सव देखकर अपने पक्ष में उसके प्रभाव की भावना से विरह की आग और भी भड़कती है—
(क) अबहूँ निद्र नाउ एहि बारा। परब देवारी होइ संसारा॥
सखि झूमुक गावैं अँग मोरी। हौं झुरावँ, बिछुरी मोरी जोरी॥
(ख) करहिं बनसपति हिये हिलासू। मो कहँ भा जग दून उदासू॥
फागु करहि सब चाँचरि जोरी। मोहिं तन लाइ दीन्हि जस होरी॥
नागमती देखती है कि बहुतों के बिछुड़े हए प्रिय मित्र आ रहे हैं पर मेरे प्रिय नहीं आ रहे हैं। इस वैषम्य की भावना उसे और भी व्याकुल करती है। किसी वस्तु के अभाव से दुखी मनुष्य के हृदय की यह एक अत्यंत स्वाभाविक वृत्ति है। पपीहे का प्रिय पयोधर आा गया, सीप के मुँह में स्वाति की बूँद पड़ गई, पर नागमती का प्रिय न आया—
चित्रा मित्र मीन कर नावा। पपिहा पीउ पुकारत पावा॥
स्वाति बूँद चातक मुख परे। समुद सीप मोती सब भरे॥
सरवर सँवरि हंस चलि आए। सारस कुरलहि खँजन दखाए॥