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संबंधनिर्वाह

प्रबंधकाव्य में बड़ी भारी बात है संबंधनिर्वाह। माघ ने कहा है—

बह्वपि स्वेच्छया कामं प्रकीर्णमभिधीयते।
अनुज्झितार्थसम्बन्धः प्रबन्धो दुरुदाहरः॥

जायसी का संबंधनिर्वाह अच्छा है। एक प्रसंग से दूसरे प्रसंग की शृंखला बराबर लगी हुई है। कथाप्रवाह खंडित नहीं है जैसा केशव की 'रामचंद्रिका' का है, जो अभिनय के लिये चुने हुए फुटकर पद्यों का संग्रह सी जान पड़ती है। जायसी में विराम अवश्य हैं—जो कहीं कहीं अनावश्यक हैं—पर विवररण का लोप नहीं है जिससे प्रवाह खंडित होता है।

हमारे आचार्यों ने कथावस्तु दो प्रकार की कही है—आधिकारिक और प्रासंगिक। अतः संबंधनिर्वाह पर विचार करते समय सबसे पहले तो यह देखना चाहिए कि प्रासंगिक कथाओं का जोड़ आधिकारिक वस्तु के साथ अच्छी तरह मिला हुआ है या नहीं अर्थात् उनका आधिकारिक वस्तु के साथ ऐसा संबंध है या नहीं जिससे उसकी गति में कुछ सहायता पहुँचती हो। जो वृत्तांत इस प्रकार संबद्ध न होंगे वे ऊपर से व्यर्थ ठूँसे हुए मालूम होंगे चाहे उनमें कितनी ही अधिक रसात्मकता हो। 'हितोपदेश' में एक कथा के भीतर कोई जो दूसरी कथा कहने लगता है या 'अलिफलैला' में एक कहानी के भीतर का कोई पात्र जो दूसरी कहानी छेड़ बैठता है वह मुख्य कथाप्रवाह से संबद्ध नहीं कही जा सकती। पद्मावती में कई प्रासंगिक वृत्त हैं—जैसे हीरामन तोता खरीदनेवाला ब्राह्मण का वृत्तांत, राघव चेतन का हाल, बादल का प्रसंग—जिनका आधिकारिक वस्तु के प्रवाह पर पूरा प्रभाव है। उनके कारण आधिकारिक वस्तुस्रोत का मार्ग बहुत कुछ निर्धारित हुआ है। प्रासंगिक वस्तु ऐसी ही होनी चाहिए जो आधिकारिक वस्तु की गति आगे बढ़ाती या किसी ओर मोड़ती हो, जैसे देवपाल के वृत्त ने अलाउद्दीन के फिर चित्तौर पहुँचने के पहले ही रत्नसेन के जीवन का अंत कर दिया।

यह तो हुई प्रासंगिक कथा की बात जिसमें प्रधान नायक के अतिरिक्त किसी अन्य का वृत्त रहता है। अब आधिकारिक वस्तु की योजना पर आइए। सबसे पहले तो यह प्रश्‍न उठता है कि प्रबंधकाव्य में क्या जीवनचरित के समान उन सब बातों का विवरण होना चाहिए जो नायक के जीवन में हुई हों। संस्कृत के प्रबंधकाव्यों को देखने से पता चलता है कि कुछ में तो इस प्रकार का विवरण होता है और कुछ में नहीं, कुछ की दृष्टि तो व्यक्ति पर होती है और कुछ की किसी प्रधान घटना पर। जिनकी दृष्टि व्यक्ति पर होती है उनमें नायक के जीवन की सारी मुख्य घटनाओं का वर्णन—गौरववृद्धि या गौरवरक्षा के ध्यान से अवश्य कहीं कहीं कुछ उलटफेर के साथ—होता है। जिनकी दृष्टि किसी मुख्य घटना पर होती है उनका सारा वस्तुविन्यास उस घटना के उपक्रम के रूप में होता है। प्रथम प्रकार के प्रबंधों को हम व्यक्तिप्रधान कह सकते हैं जिसके अंतर्गत रघुवंश, बुद्धचरित, विक्रमांकदेवचरित आदि हैं। दूसरे प्रकार के घटनाप्रधान प्रबंधों के अंतर्गत कुमारसंभव, किराता