पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/६८

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इसी प्रकार सिंहलगढ़ का निम्नलिखित वर्णन भी हठयोग के विभागों के अनुसार शरीर का वर्णन है--

गढ़ तस बाँक जैसि तोरी काया। पुरुष देखु ओही कै छाया।
पाइय नाहिं जूझ हठि कीन्हें। जेइ पावा तेइ आपुहि चीन्हें।
नौ पौरी तेहि गढ़ मझियारा। औ तहँ फिरहिं पाँच कोटवारा॥
दसहुँ दुपार गुपुत एक ताका। अगम चढ़ाव, बाट सुठि बाँका।।
भेदै जाइ कोइ यह घाटी। जो लह भेद चढ़े होइ चाँटी।।
गढ़तर कुंड सुरंग तेहि माहाँ। तहँ वह पंथ, कहीं तोहि पाहाँ।।
दसवें दुबार ताल कै लेखा। उलटि दिस्ट जो लाव सो देखा।।

हठयोगी अपनी साधना के लिये शरीर के भीतर तीन नाड़ियाँ मानते हैं। मेरुदंड या रीढ़ की बाईं ओर इला, दाहिनी ओर पिंगला नाड़ी है। इन दोनों के बीच में सुषुम्ना नाम की नाड़ी है। स्वरोदय के अनुसार बाएँ नथने से जो साँस आती जाती है वह इला नाड़ी से होकर और दाहिने नथने से जो पाती जाती है वह पिंगला से होकर। यदि श्वास कुछ क्षण दहिने और कुछ क्षण बाएँ नथने से निकले तो समझना चाहिए कि वह सुषम्ना नाड़ी से पा रही है। मध्य मध्यस्था सुषम्ना नाड़ी ब्रह्मस्वरूप है और उसी में जगत अवस्थित है। बिना इन नाड़ियों के ज्ञान के योगाभ्यास में सिद्धि नहीं होती। जो योगाभ्यास करना चाहते हैं वे पहले इला और फिर पिंगला और उसके अनंतर सुषुम्ना को साधते हैं। सुषुम्ना के सबसे नीचे के भाग में, नाभि के नीचे, योगी कंडलिनी मानते हैं। इसी का जगाने का प्रय वे करते हैं। जाग्रत होने पर कुंडलिनी चंचल होकर सुषुम्नानाड़ी के भीतर भीतर सिर की ओर चढ़ने लगती है और हृत्कमल तथा बारह चक्रों को पार करती हुई ब्रह्मरंध्र या मूर्द्धज्योति तक चली जाती है। जैसे जैसे वह ऊपर चढ़ती जाती है, योगी के सांसारिक बंधन ढीले पड़ते जाते हैं। यहाँ तक कि ब्रह्मरंध्र में पहुंचने पर मन और शरीर से उसका संबंध छट जाता है और साधक पूर्ण समाधि या तुरायावस्था को प्राप्त होकर ब्रह्म के स्वरूप में मग्न हो जाता है।

ऊपर जो पंक्तियाँ उद्धृत हैं उनमें 'नौपौरी' नाक, कान, मुँह आदि नवद्वार हैं। दशम द्वार ब्रह्मरंध्र है जिसके पास तक पहुँचने में बहुत से विघ्न या अंतराय पड़ते हैं। पाँच कोतवाल, काम, क्रोध आदि विकार हैं। गढ़ के नीचे का कुंड नाभिकुंड है जहाँ कुंडलिनी है। इस नाभिकुंड से गई हई सुरंग सुषम्ना नाड़ी है जो ब्रह्मरध्र तक चली गई है। वह ब्रह्मरंध्र बहुत ऊँचे है, वहाँ तक पहुँचना अत्यंत कठिन संसार से अपनी दृष्टि हटाकर जो उसकी और निरंतर ध्यान लगाए रहता है वहा साधक वहाँ तक पहुँच पाता है। जैसे रत्नसेन को शिव ने सिंहलगढ़ के भीतर पहुँचने का मार्ग बताया है वैसे ही साधक को किसी सिद्ध पुरुष से उपदेश ग्रहण किए बिना ब्रह्म की प्राप्ति नहीं हो सकती। प्रारंभ में कवि ने जो सिंहलगढ़ का वर्णन किया है उसमें कहा है कि 'चारिबसेरे सौं चढ़,सत सौं उतरै पार'। ये चार बसेरे सुफी साधकों की चार अवस्थाएँ हैं--शरीअत, तरीकत, हकीकत और मारफत। यही मारफत पूर्णसमाधि की अवस्था है जिसमें ब्रह्म के स्वरूप की अनुभूति होती है।