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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/६९

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रत्‍नसेन का सिंहलद्वीप में जाना भी हठयोगियों के प्रवाद के अनुकरण पर है। गोरखपंथी जोगी सिंहलद्वीप को सिद्ध पीठ मानते हैं जहाँ शिव से पूर्ण सिद्धि प्राप्त करने के लिये साधक को जाना पड़ता है।

लड़की का मायके से पति के पास जाना और जीव का ईश्‍वर के पास जाना दोनों में एक प्रकार के साम्य की कल्पना निर्गुणोपासक भावुक भक्तों में बहुत दिनों से चली आती है। कबीरदास के तो बहुत से भजनों में यह कल्पना भरी हुई है, जैसे—

खेलि लेइ नैहर दिन चारी।
पहिली पठौनी तीनि जन आए, नाऊ, ब्राह्मण, बारी।
दुसरी पठौनी पिय आपुहि आए, डोली, बाँस कहारी॥
धरि बहियाँ डोलिया बैठावै, कोउ न लगत गोहारी।
अब कर जाना, बहुरि नहीं अवना, इहै भेंट अँकवारी॥



सुनि के गवन मोरा जिया घबराई।
आजु मँदिरवा में अगिया लगिहै, कोउ न बुझावन जाई॥

इस प्रकार की अन्योक्तियाँ हिंदू गृहस्थों, विशेषतः स्त्रियों के मर्म को अधिक स्पर्श करनेवाली होती है, इससे इनके द्वारा माँगनेवाले साधु लोगों के हृदय पर प्रभाव डालकर भिक्षा का अच्छा योग कर लेते हैं। जायसी ने भी प्रथम समागम के अवसर पर पद्मावती के मुँह से इस प्रकार के व्यंग्यगर्भित वाक्य कहलाए हैं—

अनचिन्ह पिउ काँपौं मन माहाँ। का मैं कहब, गहब जो बाहाँ॥
बारि बैस है प्रीति न जानी। तरुनि भई मैमंत भुलानी॥
जीवन गरब न किछु मैं चेता। नेह न जानौं साम कि सेता॥
अब सी कंत जौ पूछिहि बाता। कस मुख होइहि, पीत की राता॥

इसी प्रकार की उक्तियाँ पद्मिनी की बिदाई के समय भी हैं, जैसे—

रोवहिं मातु पिता औ भाई। कोइ न टेक जौ कंत चलाई॥
भरीं सखी सब, भेंटत फेरा। अंत कंत सौं भएउ गुरेरा॥
कोउ काहु कर नाहिं निआना। मया मोह बाँधा अरुझाना॥
जब पहुँचाइ फिरा सब कोऊ। चला साथ गुन अवगुन दोऊ॥

इसी मायके और ससुराल की प्रचलित अन्योक्ति को ध्यान में रखकर जायसी ने ग्रंथ के आरंभ में ही पद्मावती और सखियों के खेलकूद का ऐसा माधुर्यपूर्ण वर्णन किया है। सिंहल की हाट आदि के वर्णन में भी बीच बीच में जायसी ने पारमार्थिक झलक दिखाई है, जैसे—

जिन्ह एहि हाट न लीन्ह बेसाहा। ता कहँ आन हाट कित लाहा?

कोई करै बेसाहनी, काहू केर बिकाइ।
कोई चलै लाभ सौं, कोई मूर गँवाइ॥