पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/७३

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यों ही स्वाभाविक गति पर छोड़ना चाहता है। यदि कवि का उद्देश्य सत् और असत का परिणाम दिखाकर शिक्षा देना होगा तो वह प्रत्येक पात्र का परिणाम वैसा ही दिखाएगा जैसा न्यायनीति की दृष्टि से उचित प्रतीत होगा। ऐसे नपे तुले परिणाम काव्यकला की दृष्टि से कुछ कृत्रिम जान पड़ते हैं।

'पदमावत' के कथानक से यह स्पष्ट है कि घटनाओं को आदर्श परिणाम पर पहँचाने का लक्ष्य कवि का नहीं है। यदि ऐसा लक्ष्य होता तो राघव चेतन का बरा परिणाम बिना दिखाए वह ग्रंथ समाप्त न करता। कर्मों के लौकिक शुभाशुभ परिणाम दिखाना जायसी का उद्देश्य नहीं प्रतीत होता। संसार को गति जैसी दिखाई पड़ती है वैसे ही उन्होंने रखी है। संसार में अच्छे आदर्श चरित्रवालों का परिणाम भी आदर्श अर्थात् अत्यंत आनंदपूर्ण हो होता है और बुरे कर्म करनेवालों पर अंत में आपत्ति का पहाड़ ही आ टूटा हो, ऐसा कोई निर्दिष्ट नियम नहीं दिखाई पड़ता। पर आदर्श परिणाम के विधान पर लक्ष्य न रहने पर भी जो बात बचानी चाहिए वह बच गई है। किसी सत्पात्र का न तो ऐसा भीषण परिणाम ही दिखाया गया है जिससे चित्त को क्षोभ प्राप्त होता हो और न किसी बुरे पात्र की ऐसी सूख समृधि ही दिखाई गई है जिससे अरुचि और उदासीनता उत्पन्न होती हो। अंतिम दृश्य से अत्यंत शांतिपूर्ण उदासीनता बरसती है। कवि की दृष्टि में मनुष्यजीवन का सच्चा अंत करुण क्रंदन नहीं, पूर्ण शांति है। राजा के मरने पर रानियाँ विलाप नहीं करती हैं, बल्कि इस लोक से अपना मुँह फेरकर दूसरे लोक की ओर दृष्टि किए पानंद के साथ पति की चिता में बैठ जाती हैं। इस प्रकार कवि ने सारी कथा का शांत रस में पर्यवसान किया है। पुरुषों के वीरगति प्राप्त हो जाने और स्त्रियों के सती हो जाने पर अलाउद्दीन गढ़ के भीतर घुसा और

'छार उठाइ लीन्ह एक मूठी। दीन्ह उठाइ पिरिथिवी झूठी॥'

प्रबंध काव्य में मानवजीवन का एक पूर्ण दृश्य होता है। उसमें घटनाओं की संबंधशृंखला और स्वाभाविक क्रम के ठीक ठीक निर्वाह के साथ साथ हृदय को स्पर्श करनेवाले--उसे नाना भावों का रसात्मक अनुभव करानेवाले--प्रसंगों का समावेश होना चाहिए। इतिवृत्त मात्र के निर्वाह से रसानुभव नहीं कराया जा सकता। उसके लिये घटनाचक्र के अंतर्गत ऐसी वस्तुओं और व्यापारों का प्रतिबिंबवत् चित्रण चाहिए जो श्रोता के हृदय में रसात्मक तरंगें उठाने में समर्थ हो। अतः कवि को कहीं तो घटना का संकोच करना पड़ता है, कहीं विस्तार।

घटना का संकुचित उल्लेख तो केवल इतिवृत्त मात्र होता है। उसमें एक एक ब्योरे पर ध्यान नहीं दिया जाता और न पात्रों के हृदय की झलक दिखाई जाती है। प्रबंधकाव्य के भीतर ऐसे स्थल रसपूर्ण स्थलों को केवल परिस्थिति को सूचना देते हैं। इतिवृत्तरूप इन वर्णनों के बिना उन परिस्थितियों का ठीक परिज्ञान नहीं हो सकता जिनके बीच पात्रों को देखकर श्रोता उनके हृदय को अवस्था का अपनी सहृदयता के अनुसार अनुमान करते हैं। यदि परिस्थिति के अनुकूल पात्र के भाव नहीं हैं तो विभाव, अनभाव और संचारी द्वारा उनकी अत्यंत विशद व्यंजना भी फीकी लगती है। प्रबंध और मुक्तक में यही बड़ा भारी भेद होता है। मुक्तक में किसी भाव की रसपद्धति के अनुसार अच्छी व्यंजना हो गई, बस। पर प्रबंध में