पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/७४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ५४ )


इस बात पर भी ध्यान रहता है कि वह भाव परिस्थिति के अनुरूप है या नहीं। पात्र की परिस्थिति भी सहृदय श्रोता के हृदय में भाव का उद्बोधन करती है। उसके ऊपर से जब श्रोता के भाव के अनुकूल उसकी पूर्ण व्यंजना भी पात्र द्वारा हो जाती है तब रस की गहरी अनुभूति उत्पन्न होती है। 'बनवासी राम स्वर्णमृग को मार जब कुटी पर लौटे तब देखा कि सीता नहीं हैं' यह इतिवृत्त मात्र है; पर यह सहृदयों के हृदय को उस दुःखानुभव को ओर प्रवृत्त कर देता है जिसकी व्यंजना राम ने अपने विरहवाक्यों में की। इसी बात को ध्यान में रखकर विश्वनाथ ने कहा है कि प्रबंध के रस से नीरस पद्यों में भी रसवत्ता मानी जाती है रसवत्पद्यांतर्गत नीरसपदानामिव पद्यरसेन प्रबंधरसेनैव तेषां रसवत्ताङ्गीकारात्।

जिनके प्रभाव से सारी कथा में रसात्मकता आ जाती है वे मनुष्य जीवन के मर्मस्पर्शी स्थल हैं जो कथाप्रवाह के बीच बीच में आते रहते हैं। यह समझिए कि काव्य में कथावस्तु को गति इन्हीं स्थलों तक पहुँचने के लिये होती है। 'पद्मावत' में ऐसे स्थल बहुत से हैं--जैसे, मायके में कुमारियों की स्वच्छंद क्रीड़ा, रत्नसेन के प्रस्थान पर नागमती आदि का शोक, प्रेममार्ग के कप्ट रत्नसेन को सुली की व्यवस्था उस दंड के संवाद से विप्रलंभ दशा में पद्मावती की करुण सहानुभूति, रत्नसेन और पद्मावती का संयोग, सिंहल से लौटते समय की सामुद्रिक घटना से दोनों की विह्वल स्थिति, नागमती की विरहदशा और वियोगसंदेश, उस संदेश को पाकर रत्नसेन की स्वाभाविक प्रणयस्मति, अलाउद्दीन के सँदेसे पर रत्नसेन का गौरवपूर्ण रोष और युद्धोत्साह, गोरा बादल की स्वामिभक्ति और क्षात्रतेज से भरी प्रतिज्ञा, अपनी सजलनेत्रा भोली भाली नवागता वधू की ओर पीठ फेर बादल का युद्ध के लिये प्रस्थान, देवपाल की दूती के आने पर पद्मावती द्वारा सतीत्वगौरव की अपूर्व व्यंजना, पद्मावती और नागमती का उत्साहपूर्ण सहगमन, चित्तौर की दशा इत्यादि। इनमें से पाँच स्थल तो बहुत ही अगाध और गंभीर हैं--नागमतीवियोग, गोराबादल प्रतिज्ञा कुँवर बादल का घर से निकलकर युद्ध के लिये प्रस्थान, दूती के निक पद्मावती द्वारा सतीत्वगौरव की व्यंजना और सहगमन। ये पाँचों प्रसंग ग्रंथ के उत्तरार्ध में हैं। पूर्वार्ध में तो प्रेम ही प्रेम है; मानव जीवन की और और उदात्त वृत्तियों का जो कुछ समावेश है वह उत्तरार्ध में है।

जायसी के प्रबंध की परीक्षा के लिये सभीते के विचार से हम उसके दो विभाग कर सकते हैं--इतिवृत्तात्मक और रसात्मक।

पहले इतिवृत्त लीजिए। प्रबंधकाव्य में इतिवत्त की गति इस ढंग से होनी चाहिए कि मार्ग में जीवन की ऐसी बहुत सी दशाएँ पड़ जायँ जिनमें मनुष्य के हृदय में भिन्न भिन्न भावों का स्फुरण होता है और जिनका सामान्य अनुभव प्रत्येक मनुष्य स्वभावतः कर सकता है। इन्हीं स्थलों में रसात्मक वर्णनों को प्रतिष्ठा होती है। अतः इनमें एक प्रकार से इतिवृत्त या कथा के प्रवाह का विराम सा रहता है। ऐसे रसात्मक वर्णन यदि छोड़ भी दिए जाएँ तो वत्त खंडित नहीं होता। रसानुकूल परिस्थिति तक श्रोता को पहुँचाने के लिये बीच बीच में घटनाओं के सामान्य कथन या उल्लेख मात्र को ही शुद्ध इतिवृत्त समझना चाहिए, जैसी 'रामचरितमानस' की ये चौपाइयाँ हैं--