किया है। शस्त्रों की चमक और झनकार, हाथियों की रेलपेल, सिर और धड़ का गिरना आदि सब कुछ है—
हस्ती सहुँ हस्ती हठि गाजहिं। जनु परबत परबत सौं बाजहिं॥
कोउ गयंद न टारे टरहीं। टूटहिं दाँत, सूँड़ गिरि परहीं॥
बाजहिं खड़ग, उठै दर आगी। भुइँ जरि चहै सरग कहँ लागी॥
चमकहिं बीजु होइ उँजियारा। जेहि सिर परै होइ दुइ फारा॥
बरसहिं सेल बान, होइ काँदों। जस बरसे सावन औ भादों॥
लपटहिं कोपि परहिं तरवारी। औ गोला ओला जस भारी॥
जूझे बीर लखौं कहँ ताईं। ले अछरी कैलास सिधाई॥
अंतिम पंक्ति में वीरों के प्रति जो संमान का भाव प्रकट किया है वह हिंदुओं और मुसलमानों दोनों की महत्वभावना के अनुकूल है। रणक्षेत्र में वीरगति को प्राप्त शूरवीरों का स्वागत जैसे हिंदुओं के स्वर्ग में अप्सराएँ करती हैं वैसे ही मुसलमानों के बहिश्त में भी। लोकसंगत आदर्श के प्रति यही पूज्य बुद्धि जायसी को कबीर आदि व्यक्तिपक्ष ही तक दृष्टि ले जानेवाले साधकों से अलग करती है।
भारतीय कविपरंपरा युद्ध की भीषणता के बीच गीध, गीदड़ आदि के रूप में कुछ वीभत्स दृश्य भी लाया करती है। जायसी ने भी इस परंपरा का अनुसरण किया है—
आनँद ब्याह करहिं मँसखावा। अब भख जनम जनम कहँ पावा॥
चौंसठ जोगिनि खप्पर पूरा। बिग जंबुक घर बाजहिं तूरा॥
गिद्ध चील सब मंडप छावहिं। काग कलोल करहिं औ गावहिं॥
बादशाह भोजन वर्णन—जैसा पहले कह आए हैं, इसमें अनेक युक्तियों से बनाए हुए व्यंजनों, पकवानों, तरकारियों और मिठाइयों इत्यादि की बड़ी लंबी सूची है—इतनी लंबी कि पढ़नेवाले का जी ऊब जाता है। यह भद्दी परंपरा जायसी के पहले से चली आ रही थी। सूरदास जी ने भी इसका अनुसरण किया है।
चित्तौरगढ़ वर्णन—यह भी उसी ढंग का है जिस ढंग का सिंहलगढ़ का वर्णन है। इसमें भी सात पौरें हैं, पर नव द्वारवाली कल्पना नहीं आई है क्योंकि कवि को यहाँ किसी अप्रस्तुत अर्थ का समावेश नहीं करना था। चित्तौर बहुत दिनों तक हिंदुओं के बल, प्रताप और वैभव का केंद्र रहा। सारी हिंदू जाति उसे संमान और गौरव की दृष्टि से देखती रही। चित्तौर के नाम के साथ हिंदूपन का भाव लगा हुआ था। यह नाम हिंदुओं के मर्म को स्पर्श करनेवाला है। भारतेंदु के इस वाक्य में हिंदू हृदय की कैसी वेदना भरी है—
हाय चितौर! निलज तू भारी। अजहुँ खरो भारतहि मझारी॥
उसी प्रिय भूमि के संबंध में जायसी क्षत्रिय राजाओं के मुँह से कहलाते हैं—
चितउर हिंदुन कर अस्थाना। सत्रु तुरुक हठि कीन्ह पयाना॥
है चितउर हिंदुन कै माता। गाढ़ परे तजि जाइ न नाता॥