सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ७३ )

है। विप्रलंभ में वैवर्ण्य आदि थोड़े से सात्विकों का कहीं कहीं आभास मिलता है। इस कमी से रतिभाव के स्वरूप के उत्कर्ष में तो कोई कमी नहीं हुई है पर संभोग पक्ष उतना अनुरंजनकारी नहीं हुआ है।

भावव्यंजना का विचार करते समय दो बातें देखनी चाहिए—

(१) कितने भावों और गूढ़ मानसिक विकारों तक कवि की दृष्टि पहुँची है।

(२) कोई भाव कितने उत्कर्ष तक पहुँचा है।

पहली बात में हम जायसी को बढ़ा चढ़ा नहीं पाते। इनमें गोस्वामी तुलसीदास जी की सी वह सूक्ष्म अंतर्दृष्टि नहीं है जो भिन्न भिन्न परिस्थितियों के बीच संघटित होनेवाली अनेक मानसिक अवस्थाओं का विश्लेषण करती है। कैकेयी और मंथरा के संवाद में मानव प्रकृति का जैसा सूक्ष्म अध्ययन पाया जाता है वैसा पद्मिनी और दूती के संवाद में नहीं। क्षोभ से उत्पन्न उदासीनता और आत्मनिंदा, आश्चर्य से भिन्न चकपकाहट ऐसे गूढ़ भावों तक जायसी की पहुँच नहीं पाई जाती। सारांश यह कि मनुष्य हृदय की अधिक अवस्थाओं का सन्निवेश जायसी में नहीं मिलता। जो भाव संचारियों में गिना दिए गए हैं उनका भी बहुत ही कम संचरण किसी स्थायी भाव के भीतर दिखाई पड़ता है। इन गिनाए हुए भावों के अतिरिक्त और न जाने कितने छोटे छोटे भाव और मानसिक दशाएँ हैं जो व्यवहार में देखी जाती हैं और अनुसंधान करने पर भावुक कवियों की रचना में बराबर पाई जायँगी। आश्चर्य ऐसे लोगों पर होता है जो 'देव' कवि के 'छल' नामक एक और संचारी ढूँढ़ निकालने पर वाह वाह का पुल बाँधते हैं और देव को एक आचार्य समझते हैं। गोस्वामी जी की आलोचना में मैं ऐसे भाव दिखा चुका हूँ जिनके नाम संचारियों की गिनती में नहीं हैं। संचारियों में गिनाए हुए भाव तो उपलक्षरण मात्र हैं। खैर, यहाँ केवल हमें इतना ही कहना है कि जायसी में भावों के भीतर संचारियों का सन्निवेश बहुत कम मिलता है। 'पद्मावत' में रतिभाव की प्रधानता है पर उसके अंतर्गत भी हम 'असूया', 'गर्व' आदि दो एक संचारियों को छोड़ 'ब्रीड़ा' 'अवहित्था' आदि अनेक भावों का कहीं पता नहीं पाते। इनके अवसर आए हैं, पर कवि ने इनका विधान नहीं किया है—जैसे पद्मिनी के मंडपगमन का अवसर; प्रथम समागम का अवसर।

अब दूसरी बात भाव के उत्कर्ष पर आइए। इसमें जायसी बहुत बढ़े चढ़े हैं, पर जैसा दिखाया जा चुका है यह उत्कर्ष विप्रलंभ पक्ष में ही अधिक दिखाई पड़ता है।

शृंगार का बहुत विवेचन विप्रलंभ शृंगार और संयोग शृंगार के अंतर्गत हो चुका है। यहाँ पर केवल रतिभाव के अंतर्गत कुछ मानसिक दशाओं की व्यंजना के उदाहरण ही काफी समझता हूँ। रत्नसेन से विवाह हो जाने पर पद्मावती अपनी कामदशा का वर्णन कैसे सीधे सादे पर भावगर्भित वचनों द्वारा करती है—

कौन मोहनी दहुँ हुति तोही। जो तोहि बिथा सो उपनी मोही॥
बिनु जल मीन तलफ जस जीऊ। चातक भइउँ कहत 'पिउ पीऊ'॥
जरिउँ बिरह जस दीपक बाती। पथ जोहत भइँ सीप सेवाती॥
भइउँ बिरह दहि कोइल कारी। डारि डारि जिमि कूकि पुकारी॥