पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/९४

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कौन सो दिन जब पिउ मिलै, यह मन राता जासु।
वह दुख देखै मोर सब, हौं दुख देखौं तासु॥

दोहे में 'अभिलाष' का कैसा सच्चा प्रकृत स्वरूप है। प्रेम प्रेम चाहता है। इसी अभिलाष के अंतर्गत अपना दुख प्रिय के सामने रखने और प्रिय भी मेरे विरह में दुखी है, इस बात का निश्चय प्राप्त करने की उत्कंठा प्रेमी को होती है। रतिभाव के संचारी के रूप में 'आशा' या 'विश्वास' की बड़ी सुंदर व्यंजना जायसी ने पद्मावती के मुँह से कराई है। देवपाल की दूती के यह कहने पर कि 'कस तुंइ, बारि, रहसि कुँभिलानी?' पद्मावती कहती है—

तौ लौं रहौं झुरानी जौ लहि आव सो कंत।
एहि फूल, एहि सेंदुर होइ सो उठै बसंत॥

इसी फूल (शरीर) से जिसे तुम इतना कुंभलाया हुआ कहती हो और इसी सिंदूर की फीकी रेखा से जो रूखे सिर में दिखाई पड़ती है फिर बसंत का विकास और उत्सव हो सकता है, यदि पति आ जाय। इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि होली के उत्सव के लिये जायसी ने अबीर के स्थान पर बराबर सिंदूर का व्यवहार किया है। संभव है, उस समय सिंदूर से ही अबीर बनाया जाता रहा हो।

शृंगार के संचारी 'वितर्क' का एक उदाहरण, जो नया नहीं कहा जा सकता, लीजिए। बादल की नवागता वधू युद्ध के लिये जाने को तैयार पति की ओर देख रही है और खड़ी खड़ी सोचती है—

रहौं लजाइ तो पिउ चलै, कहौं तो कह मोहि ढीठ।

'वात्सल्य' के उद्गार दो स्थानों पर हैं। एक तो वहाँ जहाँ राजा रत्नसेन जोगी होकर घर से निकलने को तैयार होता है; फिर वहाँ जहाँ बादल रत्नसेन को छुड़ाने की प्रतिज्ञा करने के उपरांत युद्धयात्रा के लिये चलने को उद्यत होता है। दोनों स्थानों पर व्यंजना माता के मुख से है पर विस्तीर्ण और गंभीर नहीं है, साधारण है। परिस्थिति के अनुसार रत्नसेन की माता का वात्सल्य 'सुख के अनिश्चय' के द्वारा व्यक्त होता है और बादल की माता का 'शंका' संचारी द्वारा। रत्नसेन की माता कहती है—

सब दिन रहेहु करत तुम भोगू। सो कैसे साधब तप जोगू॥
कैसे धूप सहब बिनु छाहाँ। कैसे नींद परिहि भुइँ माहाँ॥
कैसे ओढ़ काथरि कंथा? कैसे पाँव चलब तुम पंथा॥
कैसे सहब खनहि खन भूखा? कैसे खाब कुरकुटा रूखा॥

जितना दुःख औरों के दुःख को देख सुनकर होता है उतना दुःख प्रिय व्यक्ति के सुख के अनिश्चय मात्र से होता है। यह अनिश्चय प्रिय व्यक्ति के आँख से ओझल होते ही उत्पन्न होने लगता है। तुलसी और सूर ने कौशल्या और यशोदा के मुख से ऐसे अनिश्चय की बड़ी सुंदर व्यंजना कराई है। ऐसे स्थलों पर इस अनिश्चय का कारण रतिभाव ही होता है; अतः जिस प्रकार 'शंका' रतिभाव का संचारी होती है उसी प्रकार यह 'अनिश्चय' भी। परिस्थितिभेद से कहीं संचारी केवल 'अनिश्चय' तक रहता है और कहीं 'शंका' तक पहुँचता है। छोटी अवस्था का बादल जिस