पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/९६

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सोन नदी अस मोर पिउ गरुवा। पाहन होड़ परै जौ हरुवा॥
जेहि ऊपर अस गरुआ पीऊ। सो कस डोलाए डोलै जीऊ॥

पिछली चौपाई में 'गरुआ' और 'डोलै' शब्दों के प्रयोग द्वारा कवि ने जो एक अगोचर मानसिक विषय का गोचर भौतिक व्यापार के रूप में प्रत्यक्षीकरण किया है वह काव्यपद्धति का अत्यंत उत्कृष्ट उदाहरण है, पर उससे भी बढ़कर है व्यंजित गर्व की मार्मिकता। यह गर्व पातिव्रत की अचल धुरी है। जिसमें वह गर्व नहीं, पतिव्रता नहीं। एक बार एक लुच्चे ने रास्ते में एक स्त्री को छेड़ा। वह स्त्री छोटी जाति की थी पर उसके ये शब्द मुझे अबतक याद हैं कि 'क्या तू मेरे पति से बहुत सुंदर है?'

'संमान' और 'कृतज्ञता' ऐसे भावों की व्यंजना भी जायसी ने बड़ी ही मार्मिक भाषा में कराई है। बादल जब राजा रत्नसेन को दिल्ली से छुड़ाकर लाता है तब पद्मिनी बादल की आरती पूजा करके कहती है—

यह गजगवन गरव सौं मोरा। तुम राखा बादल औ गोरा॥
सेँदुर तिलक जो आँकुस अहा। तुम राखा माथे तौ रहा॥
काछ काछि तुम जिउ पर खेला। तुम जिउ आनि मँजूसा मेला॥
राखा छात, चँवर औधारा। राखा छुद्रघंट झनकारा॥

राजा रत्नसेन के बंदी होने पर नागमती जो विलाप करती है उसके बीच पद्मिनी के प्रति उसकी झुँझलाहट कितनी स्वाभाविक है, देखिए—

पदमिनि ठगिनी भई कित साथा। जेहि ते रतन परा पर हाथा॥

शोक के दो प्रसंग 'पद्मावत' में आए हैं—पहला रत्नसेन के जोगी होने पर, दूसरा रत्नसेन के मारे जाने पर। इनमें से पात्र द्वारा व्यंजना पहले ही प्रसंग में है, दूसरे में केवल करुण दृश्य का चित्रण है। रत्नसेन के जोगी होकर घर से निकलने पर रानियाँ जो विलाप करती हैं उसमें पहले सुख के आधार के हटने का उल्लेख है फिर उससे उत्पन्न विषाद की व्यंजना है—

रोवहिं रानी तजहिं पराना। नोंचहिं बार करहिं खरिहाना॥
चूरहिं गिउ अभरन उर हारा। अब कापर हम करब सिंगारा॥
जाकहूँ कहहिं रहसि कै पीऊ। सोइ चला, काकर यह जीऊ॥
मरै चहहि पै मरै न पावहिं। उठै आगि सब लोग बुझावहिं॥

रसज्ञों की दृष्टि में यहाँ करुण रस की पूरी व्यंजना है क्योंकि विभाव के अतिरिक्त रोना और बाल नोचना अनुभाव और विषाद संचारी भी है।

जैसा पहले कहा जा चुका है, राजा रत्नसेन के मरने पर कवि ने जिस करुण परिस्थिति का दृश्य दिखाया है वह अत्यंत प्रशांत और गंभीर है। रानियों के मुख से क्षुब्ध आवेग की व्यंजना नहीं कराई गई है, केवल पद्मिनी के उस समय के रूप की झलक दिखाकर परिस्थिति की गंभीरता का आभास दिया गया है—

पद्मावति पुनि पहिरि पटोरी। चली साथ पिय कै होइ जोरी॥
सूरुज छिपा रैनि होइ गई। पूनिउँ ससी अमावस भई॥