सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/९९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ७९ )


इसको कहते हैं उत्साह—आशा से भरी हुई साहस की उमंग। अगस्त के उदय होने पर, नदियों और तालों का जल जब घटने लगेगा तब बंदीगृह से छूटकर राजा अपने घर आ जायँगे। शरत्काल आते ही चढ़ाई हो जायगी।

बादल की माता जब हाथियों की रेलपेल और युद्ध की भीषणता दिखाकर उसे रोकना चाहती है, तब वह कहता है—

मातु न जानेसि बालक आदी। हौं बादला सिंघ रन बादी॥
सुनि गज जूह अधिक जिउ तपा। सिंघ जाति कहुँ रहहिं न छपा॥
तब दलगंजन गाजि सिंघेला। सौंह साह सौं जुरौं अकेला॥
को मोहिं सौंह होइ मैमंता। फारौं सूंड, उखारौं दंता॥
जुरौं स्वामि सँकरे जस ढारा। औ भिवँ जस दुरयोधन मारा॥
अंगद कोपि पाँव जस राखा। टेकौं कटक छतीसौ लाखा॥
हनुमत सरिस जंघ बल जोरौं। दहौं समुद्र, स्वामि बँदि छोरौं॥

इसी प्रकार के उत्साहपूर्ण वाक्य वृद्ध वीर गोरा के हैं जब वह केवल हजार कुँवर लेकर बादशाह की उमड़ती हुई सेना को रोकने खड़ा होता है। ऐसे वाक्यों में अपने बल का पूर्ण निश्चय और समुपस्थित कर्म की अल्पता का भाव प्रधान हुआ करता है। इस वीरदर्प को उत्साह का मुख्य अवयव समझना चाहिए। देखिए, इस उक्ति में कैसा अमर्षमिश्रित वीरदर्प है—

रतनसेन जो बाँधा, मसि गोरा के गात।
जौ लगि रुहिर न धोवौं, तब लगि होइ न रात॥

हास्य और बीभत्स—ये दो रस ऐसे हैं जिनमें आलंबन के स्वरूप से ही कवि-परंपरा काम चलाती है, आश्रय द्वारा व्यंजना की अपेक्षा नहीं रहती। वस्तुवर्णन के अंतर्गत युद्धवर्णन में डाकिनियों आदि का वीभत्स दृश्य दिया जा चुका है। जैसा कहा जा चुका है, भय के भी आलंबन का ही चित्रण कवि ने किया है। हास्यरस का तो 'पदमावत' में अभाव ही है।

अब एक विशेष बात पर पाठकों का ध्यान आकर्षित करके इस भाव-व्यंजना के प्रकरण को समाप्त करता हूँ। एक स्थायी भाव दूसरे स्थायी भाव का संचारी होकर आ सकता है, यह बात तो ग्रंथों में प्रसिद्ध ही है। पर रीतिग्रंथों में जो संचारी कहे गए हैं उनमें से भी कुछ ऐसे हैं जो कभी कभी स्थायी बनकर आते हैं और दूसरे भावों को अपना संचारी बनाते हैं। जायसी का एक छोटा सा उदाहरण देते हैं। जब पद्मावती ने सुना कि उपत्नी नागमती के बगीचे में बड़ी चहल पहल है और राजा भी वहीं बैठा है तब—

सुनि पद्मावति रिस न सँभारी। सखिन्ह साथ आई फुलवारी॥

यह रिस या अमर्ष स्वतंत्र भाव नहीं है, क्योंकि पद्मावती का कोई अनिष्ट नागमती ने नहीं किया था। यह 'असूया' का संचारी होकर आया है; क्योंकि यह 'असूया' से उत्पन्न भी है और रस की दृष्टि से उससे विरुद्ध भी नही पड़ता। एक संचारी का दूसरे संचारी का स्थायी बनकर आना लक्षण ग्रंथों के अभ्यासियों को