पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/१००

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कुछ विलक्षण अवश्य लगेगा। किसी दूसरे स्थल पर हम कुछ संचारियों को विभाव, अनुभाव और संचारी तीनों से युक्त दिखाएँगे।

उक्त उदाहरण में यह नहीं कहा जा सकता कि जिस प्रकार 'असूया' रतिभाव का संचारी होकर आया है उसी प्रकार 'अमर्ष' भी। इस अमर्ष का सीधा लगाव 'असूया' से है, न कि रति से। यदि असूया न होती तो यह अमर्ष न होता। अब प्रश्न यह उठता है कि यदि किसी स्थायी भाव का संचारी भी विभाव, अनुभाव और संचारी से युक्त हो तो क्या वह भी स्थायी कहा जायगा। स्थायी तो अवश्य होगा, पर ऐसा स्थायी नहीं जो रसावस्था तक पहुँचनेवाला हो। इन सब बातों का विवेचन मैं कभी अन्यत्र करूँगा, यहाँ इतना ही दिग्दर्शन बहुत है।


अलंकार

अधिकतर अलंकारों का विधान सादृश्य के आधार पर होता है। जायसी ने सादृश्यमूलक अलंकारों का ही प्रयोग अधिक किया है। सादृश्य की योजना दा दृष्टियों से की जाती है--स्वरूपबोध के लिये और भाव तीव्र करने के लिये। कवि लोग सदृश वस्तुएँ भाव तीव्र करने के लिये ही अधिकतर लाया करते हैं पर बाह्य कारणों से अगोचर तथ्यों के स्पष्टीकरण के लिये जहाँ सादृश्य का आश्रय लिया जाता है वहाँ कवि का लक्ष्य स्वरूपबोध भी रहता है। भगवद्भक्तों की ज्ञानगाथा में सादृश्य की योजना दोनों दष्टियों से रहती है। 'माया' को ठगिनी और काम, क्रोध आदि को बटमार, संसार को मायका और ईश्वर को पति रूप में दिखाकर बहुत दिनों से रमते साधु उपदेश देते आ रहे हैं। पर इन सदृश वस्तुओं की योजना से केवल स्वरूपबोध ही नहीं होता, भावोत्तेजना भी प्राप्त होती है। बल्कि या कहना चाहिए कि उत्तेजित भाव ही उन सदश वस्तुओं की कल्पना कराता है। विरक्तो के हृदय में माया और काम, क्रोध आदि का भाव ही उत्तम भय की ओर ध्यान ले जाता है जो ठगों और बटमारों से होता है। तात्पर्य यह कि स्वरूपबोध के लिए काव्य में जो सदृस्य वस्तु लाई जाती है उसमें यदि भाव उत्तजित करन का शक्ति भी हो तो काव्य के स्वरूप की प्रतिष्ठा हो जाती है। नाना रागबंधनों से युक्त इस संसार के छटने का दश्य कैसा मर्मस्पर्शी है! भावक हृदय में उसका क्षणिक साम्य मायके से स्वामी के घर जाने में दिखाई पड़ता है। बस इतनी ही झलक मिल सकती है। सदश वस्तु के इस कथन द्वारा अगोचर आध्यात्मिक तथ्यों का कुछ स्पष्टीकरण भी हो जाता है और उनकी रुखाई भी दूर हो जाती है।

यह कहा जा चुका है कि जायसी का कथानक व्यंग्यभित है। यहाँ पर इतना और जान लेना चाहिए कि भगवत्पक्ष को प्रस्तत मानने पर अप्रस्तुत की योजना दोनों दृष्टियों से की हुई मिलेगी--अगोचर बातों को गोचर स्वरूप देने की दृष्टि से भी और भावोत्तेजन की दृष्टि से भी। साधक के मार्ग की कठिनाइयों की भावना उत्पन्न करने के लिये कवि विषम पहाड़, अगम घाट तथा खोह और नालों की