पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/१७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अथर्ववेद ज्ञानकोश (अ) १५८ अथर्ववेद कुछ कमसा हो गया। इस वेदके मंत्रोंका उपयोग रहै। यही नहीं ब्राह्मणी धर्मशास्त्रोमें भी मारण, राक्षसका नाश करनेके लिये किया जाने लगा मोहन, उच्चाटन आदि पाप माने गए हैं। इसका और इसके लिये उपरोक्त देवताओंका आह्वान प्रयोग करनेवाले धोखेबाज और पाखंडियोंकी किया जाने लगा। यानी अथर्ववेद में ये देवता श्रेणी में माने जाते हैं और उन्हें दण्ड देनेका श्रादेश केवल राक्षस-संहारक रह गए । अंतमें अथर्ववेद राजाको दिया गया है। इसके विपरीत ब्राह्मणों व देवताओं और संसारकी उत्पत्तिकेविषयों के धर्मशास्त्रोमें कई स्थानों पर शत्रुके विरुद्ध जो कल्पनाएँ हैं उनसे भी सिद्ध होता है कि ये अथर्ववेदीय अभिचार मंत्रोंको काममें लानेकी मंत्र ऋग्वेदके वादके हैं। इस वेदमें तत्वज्ञानकी स्पष्ट श्राज्ञाएँ दी गई हैं। बड़े बड़े यज्ञोंका वर्णन परिभाषाओंका अच्छा विकास दिखायी देता है। जिन सूत्रग्रंथोंमे है उनमें भी भूतापसरण मंत्र और 'ईश्वर सर्वव्यापी है' इस कल्पनाका जो अक्षत शत्रुका नाश करने में सहायक मंत्रविधियोंके वर्णन स्वरूप उपनिषदोंमें दिखायी देता है लगभग मिलते हैं। आगे चलकर तीन वेद-ऋक्. यजु वैसाही इसमेभी दृष्टिगोचर होता है। और सामके शाता पुरोहितोंमें इन अभिचार मंत्रों तत्वज्ञानके सूक्तोंकामी अभिचार मंत्रोकी तरह के प्रति कुछ अश्रद्धा उत्पन्न हुई। ये पुरोहित उपयोग किया गया है। उदाहरण यो है। तत्व : अथर्ववेदको सत्य और प्राचीनताकी दृष्टिसे कम विद्यामै 'असत्' से अभिप्राय राक्षस, शव और | महत्वपूर्ण समझने लगे। इसी कारण यह दिखायी अभिचारीके नाशसे है। इससे स्पष्ट है कि इस देता है कि कहीं कहीं इन लोगोंने इस वेदका वेदमे जो अभिचार, मंत्र और तंत्र सन्निविष्ट हैं वे पवित्र धर्मग्रंथोमे समावेश करने से आनाकानी प्राचीन कालमें साधारण जनतामै प्रचलित जादू की है। प्रारंभ ही से पवित्र धार्मिक साहित्यमें टोनामें नई कल्पनाएँ जोड़ कर तयार किए हुए इसका स्थान कुछ अनिश्चित सा था। इस संबंध कृत्रिम नए संस्करण मात्र हैं। में जो कल्पनाएँ थीं वे भी विचित्र थीं। पुरातन अथर्ववेद का स्थान-बहुत दिनों तक भारतीय ग्रंथों में जहाँ कहीं पवित्र धार्मिक ग्रंथोंका उल्लेख अथर्ववेदको पूज्य और पुनीत नहीं मानते थे। हुआ है वहाँ उससे शाभिप्राय ऋक्, यजु और अबभी इस विषयमै मतभेद है । पर छाती ठोक सामसे प्रथमतः माना गया है। हाँ, कहीं भूलसे कर यह नहीं कहा जा सकता कि यह वेद बहुत हुश्रा भी है तो इस वेदकी क्रमसंख्या उन तीनोंके प्राचीन नहीं है। इसका प्रमाण अथर्ववेदके विषय बाद ही हुई है। कहीं कहीं तो धर्मग्रंथोंकी हैं। इस वेदका अभिप्राय अनिष्ट शांति, इष्ट पूर्ति, सूचीमै वेदांग और पुराण तक दिखाई देंगे, और शत्रु पीड़ा है 'अभिशाप', 'भूतापसरण' आदि पर अथर्ववेदका नाम भी न मिलेगा। शंखायन के संबंध आनेवाले मंत्र-विधि अपवित्र मंत्रोंमें के गृह्य-सूत्र में ( १-२,४,८ ) एक संस्कारका वर्णन श्रा सकते हैं। इसलिये ब्राह्मणोंने उन्हें अपने है। यह एक नवजात शिशुके प्रति 'वेदाधिक्षेपण' वालणधर्मसे दूर ही रखा है। यदि वस्तुतः देखा संस्कार है। इस संस्कारमें जो मंत्र कहा जाता जाय तो परमार्थसाधन और जादू-विद्यामें कुछ है वह यों है-“हे शिशु, मैं तेरे प्रति (तुझमें) भी अंतर नहीं है। दोनों ही अतींद्रिय ( इन्द्रिय ऋग्वेदाक्षिपण करता हूँ; मैं तुझ यजुर्वेदाधि. से परे) सृष्टि पर कब्जा करनेकी कोशिश करते क्षेपण करता हूँ. मैं तुझमें साभवेदाधिक्षेपण हैं। इसके सिवा प्राचार्य और जादूगर असलि- करता हूँ, मैं तुझमें कथा पुराधिक्षेपण करता हूँ, यसने एक ही है। किंतु हरएक देशके लोगोंके मै तुझमें समस्त वेदाधिक्षेपण करता हूँ। यहाँ इतिहासमें एक ऐसा समय आ जाता है जव पर- अथर्ववेद जानबूझकर छोड़ दिया गया है। पुराने मार्थ सांप्रदाय और मंत्रविद्या एक दूसरेले अलग बौधर्म ग्रंथोंमें भी ब्राह्मणों का उल्लेख करते समय होनेकी कोशिश करते हैं। यह हो सकता है कि उन्हें केवल तीन वेदोंमें पारंगत कहा गया है । इसमें पूर्ण रूपसे सफलता न प्राप्त हो। देवताओं उपरोक्त स्थानों में अथर्ववेदका उल्लेख न पाकर से प्रेम रखनेवाला पुरोहित, पिशाचो भूतप्रेतादिको यदि कहा जाय कि अथर्ववेद-संहिता सबके बाद से संबंध रखनेवाले जादूगरका श्रादर नहीं करता बनी है, तो ऐसा कहना एकदम गलत होगा; क्यो और उसे अपनेसे उतर कर (हलका ) समझता कि कृष्ण यजुर्वेदकी एक संहितामें और कहीं कहीं है। भारतवर्ष सी यह भेद बढ़ता ही गया ब्राह्मण तथा उपनिषद श्रादि ग्रंथोंमें अथर्ववेदका बौद्ध और जैन भिक्षुओंको कठोर आशा है कि वे उल्लेख अन्य तीन वेदोंके साथ ही साथ किया अथर्ववेदके अभिचारीसे और - मंत्रविद्यासे डर गया है। -