- अथर्ववेद ज्ञानकोष (अ)१८४ अथर्ववेद भार्गवके समान चारण वैद्य, मौद, जलद्के साथ अर्थात् प्राचीन प्रति भी इसी शौनकीय शाखाकी ही बताये हुए नाम क्यों छोड़ दिये गये। इसके है। इस बातके लिये काफी प्रमाण सम्बन्ध तर्क करना कोई सामान्य बात नहीं है । अथर्वणवेदके साहित्यमें हमेशा आनेवाली उसी प्रकार शान्तिकल्पके समान अन्य परिशिष्टो एक सांप्रदायिक कल्पना यह भी है कि प्राचीन को उसकी अपेक्षा योग्यतामें बहुत अधिक बढ़े | प्रतिके १, १, १ में दिये हुए 'येत्रिषप्ता' के बदलेमें चढ़े होते हुए भी अथर्वणसूत्रके बराबरीमें पञ्च- अथर्वणसंहिताका प्रारम्भ 'शनोदेवी रभिध्ये के कल्पोंमें ही उसे स्थान क्यों दिया गया, इस पर मन्त्रसे हुआ है, 'शनोदेवीरभिष्टय इति एवमादि अपनी बुद्धि लगाना कोई सरल काम नहीं है। कृत्वाऽथर्वण वेद अधीयेत' यह गोपथ ब्रा० १, २६ हाँ ऐसा कहा जा सकता है कि भिन्न भिन्न महत्व में लिखा हुआ है। ब्रह्मयज्ञमें वेदके श्रारम्भके पूर्ण ग्रन्थोके नाम बिना किसी विशेष प्रयोजन ही मन्त्र दिये हुए हैं, उसमें अथर्वण वेदका आरम्भ एकत्र किये गये हों। 'शनोदेवीरभिष्टये' के मन्त्रसे किया है, डॉ० होगके ऊपर कहा जा चुका है कि कौशिकसूत्र चार | कथनानुसार कुछ प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों में शाखाओंकी संहिता विधि है। इससे सिद्ध होता अथर्वणवेदका प्रारम्भ 'शनोदेवीरभिष्टये' के मन्त्र है कि इन शाखा भेदोंकी भांति संहिताओमें भी से किया है। डॉ० हौग तथा भंडारकरके कथना- भेद होना अथवा कमसे कम एक ही संहिताके नुसार अथर्ववेदानुयायी प्रत्येक मनुष्यको चाहिये सूत्रोंमें भेद होना सम्भव नहीं। श्राजतक प्राचीन : कि मुंह धोते समय ये त्रिषप्ताः' तथा 'शंनोदेवी- अथवा काश्मीर प्रतिके अतिरिक्त कोई दुसरी रभिष्टये के मन्त्र कहे। महाभाष्यकी प्रस्तावना शाखा-संहिता नहीं देख पड़ी। प्रो० रॉथने अपनी में दिया है कि 'शंनोदेवीरभिष्टये' अथर्ववेदके पुस्तक काश्मोर प्रतिको 'पैप्पलाद' कहा है किन्तु प्रारम्भका मन्त्र है। पैप्पलाद संहितामे, जिसकी अन्य स्थानके पण्डित इससे सहमत नहीं है। यूरपमें उपलब्ध केवल एक ही प्रति प्रो० रॉथके ब्लूमफील्डका कथन है कि इस विषयमें शङ्का अधिकार है। उसका पहला पृष्ठ गल गया है करनेका कोई कारण ही नहीं है। कभी कभी परन्तु उसका भी मत है कि संहिताका पहला अथर्ववेदीय ग्रन्थीको 'पैप्पलादि' नाम बिना मन्त्र ऊपरवाला ही होना चाहिये क्योंकि वह कारण ही देदिया जाता है किन्तु उन ग्रन्थोके मन्त्र प्रतिके अन्य स्थानमें कहीं नहीं आया है। अर्थसे इस शाखाका कोई सम्बन्ध नहीं रहता। यह बात करीब करीब निश्चित है इसको माननमें यही स्थिति दूसरे वेदग्रन्थोके सम्बन्धमें भी होनेके कोई भी बाधा नहीं रह जाती क्योंकि अथर्व परि- कारण इस विषयमें विशेष लिखनेको आवश्यकता शिष्ट ३४, २० में पैप्पलादि शान्तिगणका प्रारम्भ नहीं देख पड़ती। यह कहा जा सकता है कि शन्नोदेवी' के प्रतीकसे किया है। प्राचीन प्रति शौनक शाखाकी है। यही अधिक शौनक लंहिताका श्रारम्भ। ये त्रिषक्षा के ठीक भी मालूम होता है। अथर्वपद्धतिमें वैतान - मन्त्रसे होता है। होगके मतानुसार अथववेदका सूत्रको शौनकसूत्र कहा और इस विधान प्रारम्भ 'शनोदेवी' के मन्त्रसे हुआ है और वह संशय होनेका कोई स्थान भी नहीं देख पड़ता। मन्त्र फिरसे अपने यथोचित स्थान पर १, ६, १, यह भी पूर्ण निश्चित है कि शौनकसूत्र अथर्वसूत्र में पाया है और उस हस्तलिखित प्रतिमें यह पर अवलम्बित है, अर्थात् कौशिक शौनिकके मन्त्र उपरोक्त सम्प्रदायानुसार बादमें मिलाया सूत्र हैं। कौशिक 'चतसृषु शाखासु शौनकादिषु हुआ होगा। अथर्व परिशिष्ट ४४, ६, 'वेद व्रत. संहिता विधि' है। केशवकृत अथर्वण-पद्धति स्थादेशेन विधिमें इस प्रकार विधान किया है कि तथा सायनके सिद्धान्तसे तो उपरोक्त कथन ही ये विषप्ताः' अथर्वण वेदके आरम्भका मन्त्र है, की पुष्टि होती है। कौशिक ८५, ७, ८ देवदर्शिन वैतान सूत्रमे 'ये त्रिषप्ताः' तथा 'शनोदेवी' इन तथा शौनकिनके बीचका मतभेद दिखाया है। दोनोंमें से एक का भी उल्लेख नहीं है । परन्तु उसमें कौशिकने शौनकीयका पक्ष ही लिया है। कौशिकमें इस बातका स्पष्ट प्रमाण है कि जिस इससे भी उपरोक्त कथनकी ही पुष्टि होती है (अ० शाखाकी संहिताके आधार पर यह सूत्र रचा गया श्रो० सो०नि० का० पु. ११ पृष्ठ ३७७)। कौशिक है उसका श्रारम्भ 'येत्रिषताः' के मन्त्रसे हुआ है। तथा वैतान दोनों ही शौनक सूत्र हैं (इसमें परिभाषासूत्र ७, ८ 'पूर्वम् विषप्तीयम्' है। जहाँ सन्देह करनेका कोई स्थान नहीं है। ये दोनो जहाँ पूर्वम् शब्दका प्रतीकके अर्थमें प्रयोग किया सूत्र प्राचीन प्रतियोंके आधार पर रचे गये हैं गया है वहाँ वहाँ पर उसका अभिप्राय त्रिषप्तीय
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