पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/२४१

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अनन्तपद अनन्तत्व ज्ञानकोश (अ).२१८ से अंशोंके समान है या नहीं। उदाहरणके लिये | होनेके कारण अनन्तशक्ति का अर्थ अन्तरहित कह सकते हैं कि अत्यन्त तीन उष्णता बहुतसी शक्ति भी किया जा सकता है । कम कम उष्णता मिलानेसे नहीं होती। यह अनन्त कल्याण का अर्थभी अनन्त शक्तिके कहनाभी युक्ति संगत नहीं है कि किसी दो समान समान किया जाना सम्भव है। इसी आधारपर वस्तु को तीवा का भेद किसी दूसरी दो वस्तुओं अनन्त कल्याण का सम्पूर्णहित गुण-वाचक अर्थ की तीव्रताके भेदसे तुलना नहीं किया जा सकता। लगाना चाहिये। कदाचित् ईश्वरकी मर्यादित उदाहरणार्थ यह नहीं कहा जा सकता कि नीले कल्पना उपरोक्त अनन्तकल्पनाकी बाधाओंके कारण और हरे रङ्गका भेद हरे और पीले रङ्गके भेदके | दी हुई हो। समान ही है। इन उदाहरणों में समधर्मी अथवा अनन्त-विश्व-(Cosmos) यदि एक दृष्टि सममूल मानाधार (Homogeneous units) अंश से देखा जाय तो विश्वमें भी अनन्तत्वका समावेश की अनन्त परम्पराका अस्तित्व मानने के लिये कोई | होता है, क्योंकि उनमें संख्या का समावेश होता है भी आधार नहीं हैं। उसी भाँति यदि भिन्न भिन्न जो अनन्त हैं ही। किन्तु इससे यह नहीं कहा गुणधौंके उदाहरण लिये जाये तो इसमें तनिक ! जासकता कि विश्वमें अस्तित्व (Existence ) भी सन्देह नहीं रह जाता कि वे संख्या मर्यादित अनन्त है। यदि अस्तित्व का अर्थ इतना ही हैं। आधि भौतिक शास्त्रोंके साम्प्रतिक विकास लिया कि जो कल्पना करने योग्य दृष्टिसे सत्य द्वारा इस कल्पनामें कोई तत्व ही नहीं रह जाता हो, तो यह कहना पड़ेगा कि विश्वमें अनन्तत्व ही कि दृश्य पदार्थ अनन्त अंशोमे विभाज्य है। अनन्तत्व भरा पड़ा है। किन्तु यह कहना कठिन अनन्तगुण-भारतके तत्ववेत्ताओंने गुणधर्मके है कि विश्व ही अनन्त है। केवल सर्वव्यापी और अनन्तत्व को कल्पना का उपयोग ईश्वर की पूर्ण होने की दृष्टिसे ही वह अनन्त अवश्य कल्पनाम किया है। अनन्तत्व की ऐसी कल्पना कहा जासकता है। प्रायः ज्ञान, शक्ति तथा दयालुता आदि गुणों के ही अनन्तदेव-(१)-यह भास्कराचार्य का विषयमें की जाती है। इस कल्पनामें यदि अनन्तत्व | वंशज था। ब्रह्मगुप्तके सिद्धान्तके २० वें अध्याय का अर्थ असीम लिया जाय तो अनन्तज्ञानसे ! और बृहज्जातक पर इसने टीका की है। इसका तात्पर्य होगा केवल वस्तुओं की अनन्त संख्याका शक संवत ११४४ हैं (शं० बा० दीक्षित-भारतीय ज्ञान । संख्याको घटना एकही तत्व पर होनेसे | ज्योतिश शास्त्र) कोई भी निपुण गणितज्ञ अनन्त संख्याकी कल्पना (२) यह कृष्णभक्ति चंद्रिका नामक नाटक कर सकता है। ऐसा होने पर भी यह नहीं कहा का कर्ता था। इसके पिता का नाम श्रापदेव था। जासकता कि संख्याक सम्पूर्ण पारस्परिक सम्बन्ध अनन्त देव राजा बाजबहादुरके आश्रयमें रहता से वह भिज्ञ होगा। इससे थोड़ा बहुत अनन्त था। उसका पिता आपदेव पूर्वकालीन अनन्तदेव ज्ञानके विषयमें समझमें आ सकता है। का पुत्र और पूर्वकालीन आपदेव का नाती था। किन्तु अनन्त का अर्थ अन्तरहित लगाने पर (ऑफ्रक्ट-कट, कॅट, पीटरसन रिपोर्ट ४) अनन्त-शक्ति की कल्पना करना अत्यन्त कठिन अनन्तपद-(Myriopoda)-इस जातिमें है। कुछ ग्रंथकारोने इस अनन्त शक्तिपर बड़े बड़े | शतपद, गोजर, वाणी इत्यादि जन्तु होते हैं । अनुमान दौड़ाये किन्तु वे सब व्यर्थ ही सिद्ध हुए। यह संधीपाद जन्तुओं का ही एक वर्ग है । इनमें जे० एम० ई० मॅकॉर्ट के मतानुसार अनन्त-शक्तिका तथा कीटकवर्गमें बहुत साम्य होता है। वायुनलिका अर्थ परस्पर-विरोधी घटनाओं को एकमें घटित के संयोगसे ही इनकी श्वांस-क्रिया चलती रहती करना है। काले रङ्गको सफेद, उत्तम को खराब, हैं। अपने चीरदार शृङ्ग, युगलनेत्र, दो अथवा अनन्त को सान्त (अन्त-सहित ), २+२ को ५ तीन द्ष्ट्रोसे यह शीघ्रही पहचाने जासकते हैं। अथवा १००, इत्यादिके साथ समावेश करना। इनके कबन्ध प्रदेशपर अनेक वलय होते हैं और किन्तु अनन्त-शक्तिसे परिपूर्ण ईश्वरमें शक्ति का प्रत्येक वलय के साथ दो पैर जुड़े रहते हैं। बिल्कुल श्रभाव भी सम्भव है । अतः अनन्त शक्ति अन्य कवचधारी अथवा कोटकवर्गोंसे इनकी में से लिये हुए कोई भी विशेष गुण को ही प्रकट तुलना करने पर इनमें बहुत कमी देख पड़ती है। करना सम्भव देख पड़ता है, क्योंकि ऐसे समय इस श्रेणीके जीवोंके दो मुख्य भाग किये गये हैं । अशक्य अथवा अप्रिय पदार्थ अलग कर दिये - पहला भाग शतपदों ( Certipoda ) और दूसरा जाते हैं। ऐसे ही लिये हुए विशेषगुणके अनन्त युगलपदों ( Diplopoda ) का है। कुछ शास्त्रशो