पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/६५

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अग्नि पुराण । ज्ञानकोष (अ) ५५ अग्निपुराण हैं। दान पाँच प्रकारके कहे हैं, भेद तीन हैं और करे और आटविक सेना को पहले लड़ावे। तीन ही प्रकारके दाम है। किसका किस अवस्था तदनन्तर वाहक-सेनाकी योजना करनी चाहिये। मैं और किस अवसर पर प्रयोग करना चाहिये, छावनी, गांव, शहर, प्रजादिक को विश्वास इसका वर्णन संक्षिप्तमै श्रागे दिया गया है दिलाकर सेनासे हमला कराना चाहिये । अध्याय २४२ में राजनीति ! सेना ६ प्रकारकी हमला केवल रात्रिम ही न होना चाहिये, बल्कि होनी चाहिये-मौल, भूत, श्रेणि, सुहृत, द्विषत् | दिनमें भी करना चाहिये । रात्रिमें जब शत्रु निद्रा- और पाटविक। मौल-खानदानी पुश्तैनी तथा | देवी की गोदमें पड़े रहते हैं उस समय सशस्त्र शास्त्रवेत्ता ( देखिये मनुस्मृति ७, ४५ । ) भूत- । सैनिकों और हाथियों की योजना करनी चाहिये। लायक और स्वामिभक्त। श्रेणि-सुहृद भित्र। द्विषत्- | गजदल का उपयोग वनप्रवेश करने में होता है। शत्रु । पाटविक जंगलोंसे भली भाँति परिचित एकत्रित सेना को तितर-बितर करने, तितर- इन्हीं बातोको ध्यानमें रख कर ही सेनामें मनुष्यों बितर सेना को एकत्रित करने, अभिन्न सेनाका को भरती करना चाहिये। हाथी, घोड़े, रथ, | भेद करने और मित्रसंधान करनेके काममें रथ पैदल, ये सेनाके भाग अथवा अंग हैं । क्रमसे उपयोगी होता है। वन, दिशा, मार्ग की खोज आवश्यकतानुसार सेनामै नियुक्ति होना चाहिये। करना, (वीवधासार लक्षण) शत्रुके मार्गका अब हमें व्यूह और सेनाकी रचनाका निश्चय अथवा उसके रसदका पता जानना, अनुयाइयों करना है। नदी, पर्वत, अरण्य, दरें, घाटियाँ | मैं हलचल मचाना (अनुयायीनां प्रसरण ) जरूरी श्रादि भयानक स्थानों पर सेनापतिको स्वयं ही | कामों को शीघ्रतासे करना, (दिनानुसरण) हतो- सेना लेकर जाना चाहिये। 'नद्याद्रिवनदुर्गेषु त्साहोंको बल देना या सहायता भेजना, शेष यत्र यत्र भयं भवेत्। सेनापतिस्तत्र गच्छेत स्वयं | अथवा पीछेकी सेनाका नाश करना, ये घुड़सवारों व्यूहीकृतै बेलै ।' शुक्रनीतिमै यही श्लोक पाठा- के काम हैं । पैदल सर्वथा शस्त्रोंसे सुसजित रहने न्तर करके दिया है। (शुक्र नीति अध्याय ४० चाहिये। शिविरका शोधन, स्वच्छता बस्तिकर्म, ७)। सेनानायक सबसे आगे होना चाहिये । मलशोधन, ईटा पत्थर, पेड़ काँटेदार वृक्ष. झाले, उसके निकट ही धैर्यवान शूर बीर उपस्थित हो। बिल इत्यादिको ठीक और साफ करनेका काम सेनाके मध्यमें कलत्र, खामी कोष इत्यादि रहना | पैदलोंका है । पैदलोको जमीन भरपूर देनी चाहिये, चाहिये । उभय पार्श्वमे घोड़े,घोड़े के बाद रथ रथ | अर्थात् बाहर जाने आने अथवा भागते समय के बाद हाथी, और हाथियोंके दोनों ओर जंगलसे रास्ता खोज निकालनेके लायक होनी चाहिये। परिचित सेना ( आटविक ) होनी चाहिये । सेना- | पैदलोंके लिये जमीन कठिन ( कड़ी) न होनी पतिका पीछे होना उपयुक्त है। इसी प्रकारकी चाहिये। तथापि झाड़ी, ईटा पत्थर वाली ऊँची नीची जमीन, छोटे छोटे पहाड़ शाथवा पहा- सन्य-रचना आवश्यक है। आर्तलोगोंको आश्वासन देते हुए सुसज्जित डियों में पैदल बड़े उपयोगी होते हैं। रेगिस्तान सेना सहित निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचना चाहिये। और दलदलका प्रदेश घुड़सवारोंके लायक नहीं रणारम्भमें व्यूह रचना निश्चित करना चाहिये हैं । कीचड़, पेड़ अथवा ऊँची नीची जमीन रथ- पूर्वगामी सेनाकी रचना इस प्रकार होनी चाहिये। । दलके उपयुक्त नहीं है। झाड़ी, लता, निर्भर, बड़े सन्मुखसे भय होनेपर दोनों ओर मकर, श्येन बड़े पर्वत, समभूमि व कीचड़से रहित प्रदेश सूची या वीरचक्र श्रादि व्यूहों से किसीकी भी ! गजदलके लायक होता है। राज्यके सम्बन्धमें "प्रतिग्रह" शब्दका अर्थ रचना होनी चाहिये। पीछेके भागमें भय हो तो पोछे शकट व्यूह लाभकारी है । पार्श्व-भागमें अथवा व्याख्या इस भांति है कि व्यूह के शेष भय हो तो वज्र व्यूह रचे और चारों ओरके लिये अंग नष्ट हो जाने पर (छः अंग आगे दिये हैं) सर्वतोभद्र व्यूह अत्यन्त उपयोगी है। युद्ध दो । सेनाको आश्वासन देकर लड़ाना । इसीको प्रति प्रकार के हैं प्रकाशित और अप्रकाशित । श्रप्रका-! ग्रह कहते हैं । प्रतिग्रहके विना व्यूह खण्डित शित युद्धमें छावनीके रक्षकों को विनष्ट करना | मालूम देता है । प्रतिग्रहके विना युद्ध करना चाहिये। पीछा करती हुई सेनासे अपनी सेना अनुचित है । प्रतिग्रह शब्दकी व्याख्या इस प्रकार आगे बढ़ा ले जाकर उसके एकत्रित होने पर दी है कि 'उरस्यादीनिभिन्नानि प्रतिगृह्णन्व- मारना चाहिये । असावधान पाकर चारों ओरसे | लानिहि ॥ प्रतिग्रह इति ज्ञातो राजकार्या- अर्थात्, श्रागे पीछे और दोनों पार्श्वसे आक्रमण | तरक्षमः ॥” राजाका सर्वस्व उसके कोष पर