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पृष्ठ:टोबा टेकसिंह.djvu/१३२

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मैंने चडढे को काफी समय के बाद देखा था। वह मेरा बेतकल्लुफ दोस्त था। 'प्रोए मण्टो के घोडे ।' के जवाब में मैंने भी कुछ इसी किस्म का नारा लगाया होता, लेकिन उस स्त्री को उसके साथ देखकर मेरी बेतकल्लुफी झिरिया झिरिया हो गई। मैंन अपना तागा रकवा लिया। चड्ढे ने भी अपने कोचवान को ठहरने के लिए पहा । फिर उसने उम स्त्री से अंग्रेजी मे कहा, 'मम्मी, जस्ट ए मिनट 'तुम । सीधे . तागे से क्दपर वह मेरी प्रोर अपना हाथ बढ़ाते हुए चिल्लाया, तुम यहा कसे पाए ?' फिर अपना बना हुआ हाथ बडी बेतकल्लुफी से मेरी पुरतकल्लुफ वीवी से मिलाते हुए कहा, 'भाभीजान, आपने कमाल कर दिया। इस गुलमुहम्मद को आखिर माप खीचकर यहा ले ही प्राई।" मैंने उससे पूछा, 'तुम जा कहा रह हो ?' चडढे न ऊचे स्वर में कहा, 'एक काम से जा रहा हू-~-तुम ऐसा करो वह एकदम पलटकर मेरे तागे वाले से मुखातिब हुअा, 'देखो, साहब को हमारे घर ले जामो, किराया विराया मत लेना इनसे ।' उधर से तुरत ही निपटकर उसने निश्चित सा होकर मुझसे कहा, 'तुम जामो, नौकर वहा होगा, बाकी तुम देख लेना।' और वह फुदककर अपने तागे में उस बूढी मेम के साथ जा बैठा जिमको उसने मम्मी कहा था। इससे मुझे एक प्रकार का सतोप हुआ था, बल्कि यो कहिए कि जो बोझ एक्दम उन दोनों को साथ-साथ देख- कर मेर सीन पर प्रा पडा था, काफी हद तक हल्का हो गया था। उसका तागा चल पडा । मैंन अपने तागे वाले से कुछ न कहा । तीन या चार फ्लाग चलकर वह एक डाय बगले की तरह की इमारत के पास रुका और नीचे उतरकर बोला, 'चलिए साहब मैंने पूछा, 'कहा उसन जवाव दिया, 'चडढा साहब का मकान यही है।' 'मोह। मैंने प्रश्नवाचक दष्टि से अपनी बीवी की ओर देखा। उसके तवरा ने मुझे बताया कि वह चड्ढे के मकान मे रहने के हक म मम्मी | 133 1