पृष्ठ:टोबा टेकसिंह.djvu/५२

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चमक भी पदा हो जाती थी। गठीला और सरती वदन था। कनपटियो पर उसके बाल सफेद हो रहे थे। भूरे रंग की गम पतलून पहने हुए था। कमीज मफेट थी और उसका कालर गदन पर से ऊपर को उठा हुग्रा था। गवर कुछ इस प्रकार दरी पर बैठा हुअा था कि मालूम होता था गवर की बनाय सुलताना ग्राहक है। इस एहसास ने सुलताना यो कुछ परगान कर दिया, अतएव उसने शर से कहा, 'फर्माइए गरवठा हुआ था। यह सुनकर लेटते हुए गोला, 'मैं क्या फर्माऊ, कुछ तुम ही फर्मानो। बुलाया तुम ही ने है।' जव सुलताना कुछ न बोली तो वह उठ बैठा, 'मैं समभा, मुझमे सुनो। जो कुछ तुमने ममझा, गलत है । मैं उन लोगो में से नहीं हू जो कुछ देकर जात हैं । डाक्टरो की तरह मेरी भी फीस है । जव मुझे बुलाया जाए तो फीस दनी ही पटती है।' सुननाना यह सुनकर चकरा गई, लेकिन फिर भी उसे वेइस्तियार हमी आ गई । पूछा, 'माप काम क्या करते हैं ?' शकर ने उत्तर दिया, 'यही जो तुम लोग करते हो।' लो प्रय "क्या ?" 'तुम क्या करती हो?" 'मैं मैं मैं कुछ नहीं करती।' मैं भी कुछ नहीं करता। सुलताना ने भिनावर कहा, 'यह तो कोई बात न हुई-आप कुछ न कुछ तो जरूर करते होगे।' शकर ने बडे इत्मीनान से उत्तर दिया, 'तुम भी कुछ न कुछ जार करती होगी। "झर मारती है।' मैं भी झक मारता है। 'तो पायो दोनो भक मारें।' 'हाजिर हूं, लेकिन मैं झक मारने के दाम कभी नहीं दिया करता।' 'होशी दवा करो, यह लगरखाना नहीं है।' 'और मैं भी वालण्टियर नही हू।' काली सलवार 153