पृष्ठ:टोबा टेकसिंह.djvu/५३

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सुलताना यहा एक गई। उमने पूछा, 'यह वालण्टियर कौन होते हैं शवर न उत्तर दिया, 'उल्लू के प? ।' 'मैं उल्लू की पटठी नहीं।' 'मगर वह प्रादमी खुदावरश जो तुम्हार साथ रहता है, जहर उल्लू का पटठा है।' 'क्या? 21 'इसलिए कि वह कई दिना स एक एसे पहुचे हुए फकीर के पाम अपनी 'स्मित खुलवान जा रहा है, जिमपी अपनी किस्मत जग लगे ताने की तरह यद है। यह कहकर शकर हसा । इसपर सुलताना ने कहा 'तुम हिदू हो, इसलिए हमारे बुजुर्गों का मजाक उडात हो।' शकर मुस्कराया, 'ऐसी जगहो पर हिन्दू मुस्लिम सवाल पैदा नहीं हुआ करत । बडे बडे पण्डित और मौलवी भी यहा पाए ता गरीफ आदमी बन जाए।' 'जाने क्या अटपटाग बातें करत हो बोलो रहोगे एक शत पर।' 'शत तुम लगानोगे, सुलताना खीजकर उठ खडी हुई। 'जानो अपना रास्ता पकड़ो।' शकर आराम से उठा। पतलून की जेबो में अपन दोना हाथ डाले और जाते हुए बोला, मैं कभी कभी इस बाजार से गुजरा करता हू । जब भी तुम्ह मेरी जरूरत हो, बुला लेना, बहुत काम का आदमी हूँ।' शकर चला गया और सुलताना काले लिबास को भूलकर दर तक उसके वारे म सोचती रही ! उस आदमी की बातो ने उसके दुख को बहुत हल्ला कर दिया था। अगर वह अबाले म प्राया होता, जहा वह खुशहाल थी तो उसने क्सिी और ही रूप से इस आदमी को देखा होता और बहुत सभव है कि उसे धक्के देकर बाहर निकाल दिया होता लेकिन यहा चूकि वह बहुत उदास रहती थी इसलिए उसे शकर की बातें पस द भाई। 54/टोबा सिंह