पृष्ठ:टोबा टेकसिंह.djvu/५८

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दू जिसम तुम काली तलवार वनवा सको।' सुलताना न तुरत कहा, नही, मेरा मतलब यह है कि अगर हो सके ता मुझे एक काली मलवार ला दो।' शकर मुस्करा दिया, मेरी जेब में तो कभी कभार ही कुछ होता है। फिर भी मैं कोशिश करूगा । मुहरम की पहली तारीस को तुम्ह यह सलवार मिल जाएगी। तो वस, अब खुश हो गइ ?' फिर एकाएक सुलताना वे बुदो की ओर देखकर वोला, 'क्या ये बुदे तुम मुझे दे सकती हो" सुलताना ने हसकर कहा, 'तुम इह लेकर क्या करोगे । चादी के मामूली वुदे है। ज्यादा से ज्यादा पाच रुपय के होगे।' 'मैंन तुमसे बुदे मागे हैं। इनकी कीमत नही पूछी। बोलो, देती हो?' 'ले लो।' कहकर उसने बुदे उतार दिए। इमके वाद उभे अफसोस भी हुमा लेकिन शकर जा चुका था। सुलताना वो बिल्कुल पाशा नही थी कि शकर अपना वादा पूरा करेगा, लेकिन पाठ दिन के बाद मुहरम को पहली तारीख को सुबह नौ बजे दरवाजे पर दस्तक हुई। सुलताना ने दरवाजा खोला तो शकर खडा था। अखबार में लिपटा हुअा एक पुलिंदा सुलताना को थमाते हुए बोला, 'साटन की काली सलवार है । देख लेना, शायद कुछ लम्बी हो-अब मैं चलता हू ।' शकर मलवार देकर चला गया और दूसरी कोई बात उसने सुल ताना से नही को । उसकी पतलून मे सलवटें पड़ी हुई थी। वाल विखरे हुए थे । ऐसा मालूम होता था कि अभी-अभी मोकर उठा है और सीधा इधर ही चला आया है। सुलताना ने कागज खोला । साटन की काली सलवार थी-वैसी ही जैसी वह मुग्तार के पास देख आयी थी । सुलताना बहुत खुश हुई। शुदा और सौदे का जो अफसोस उसे हुआ था, इस सलवार ने और शकर के वादा वफा करने स दूर कर दिया । दोपहर को वह नीचे लाण्ड्री वाले से अपनी रगी हुई कमीज और दुपट्टा ले आई । तीनो काले कपडे जब उसने पहन लिए तो दरवाजे पर काली सलवार / 59