पृष्ठ:टोबा टेकसिंह.djvu/६३

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रहा था। रणधीर के हाथ सारी रात उगी छातिया पर हवा ये भाका की तरह पिरते रहे । छोटी छोटी चूचिया मोर वह मोटे-मोटे गोल दाने, जो चारा मोर एक पाले वृत्त के रूप म फ्ले हुए थे, उन हवाई भाकों स जाग उठत और उस घाटन लडकी के पूर बदन म एक एमी सिहरन पदा हो जाती पि स्वय रणधीर भी कपकपा उठता। ऐमी कपकपाटा स रणधीर या संक्डा वार वास्ता पडा चुवा था। वह इनका म्वाद भी भली प्रकार जानता था। वई लडकिया के नम और सल सीना के माथ अपना सीना मिलाकर यह एसी कई रातें बिता चुका था। वह ऐमी लडक्यिा ये साय भी रह चुका था जो बिलकुल अल्हड थी और उसके माथ लिपटवर घर की सारी बातें सुना दिया करती थी, जो पिसी गैर के कानो के लिए नहीं होती। वह एसी लडक्यिा से भी शारीरिक सम्बध स्थापित कर चुका था जो सारी महनत स्वय करती थी और उसे कोई तकलीफ नही देती थी लेकिन यह पाटन लडपो जो इमली के पेड के नीचे भीगी हुई खडी थी और जिसे उसन इशारे से ऊपर बुला लिया था, बिलकुल भिन प्रकार की लडकी थी। सारी रात रणधीर को उसने गरीर से एक अदभुत प्रकार की बू आती रही थी । उस बू को-जो एक्माथ खुशबू भी थी और बदबू भी -वह रात भर पीता रहा । उसकी बगलो से उसकी छातियो से उसके चाला से, उसके पेट से, प्रत्येक स्थान से यह वू, जो बदबू भी थी और खुशबू भी, रणधीर के अग अग मे वस गई थी । सारी रात वह सोचता रहा था कि यह घाटन लडकी बिलकुल पास होने पर भी किसी प्रकार इतनी पास न होती अगर उसके नगे शरीर से यह बू न उडती यह बू उसके दिल दिमाग की हर सलवट मे रेंग रही थी , उसके तमाम पुराने और नये ख्याला म रम गई थी। इस व् ने उस लड़की और रणधीर को मानो एक दूसरे म घोल दिया था। दोनों एक दूसरे में समा गए थे, अत्यधिक गहराइयो मे उतर गए थे जहा पहुचकर वह एक विशुद्ध मानवीय तप्ति में परिणत हो गए थे। ऐसी तृप्ति जो क्षणिक होन पर भी स्थायी थी। जो निर तर विकास- शीत होते हुए भी स्थिर और सुदृढ थी। दोनो एक ऐसा स्वप्न बन गए थे 64/ टोबा टेवमिह