पृष्ठ:टोबा टेकसिंह.djvu/६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गाठ दे रखी थी। वह गाठ उसके स्वस्थ वक्षस्थल दे नह परतु मलिन गडढे म छुप सी गई थी। दर तक वह अपने घिस हुए नाखूनो की सहायता स चोली की गाठ खोलन की कोशिश करती रही, जो भीगने के कारण बहुत अधिक मज- बूत हो गई थी । जव थक हारकर बैठ गई तो उसन मराठी भापा मे रण- धीर स कुछ कहा, जिसका मतलब यह था- मैं क्या कर, नहीं खुलती।' रणधीर उसके पास बैठ गया और गाठ खोलने लगा। जब नही खुली तो उमने चोली के दोना सिरो को दोनो हाथो मे पकडकर इस ज़ोर से भटका दिया कि गाठ सरसराकर फिसल गई और इसके साथ ही दो धडक्ती हुई छातिया एक्दम प्रकट हो गइ । क्षण भर के लिए रणधीर ने सोचा कि उसके अपन हाथो ने उम घाटन लडकी के सीन पर नम-नम गुधी हुई मिटटी की निपुण कुम्हार की तरह दो प्यालिया की शक्ल बना दी है । उसकी स्वस्थ छातियो म वही गुदगुदाहट, वही धडवन, वही गोलाई, वही गम गम ठण्डक थी जो कुम्हार दे हाथो में निकले हुए ताजा बरतनो मे होती है। मटमले रग की जवान छातियो में, जो बिलकुल कवारी थी, एक अदभुत ढग की चमक पैदा हो रही थी। गेहुए रग के नीचे धुधले प्रकाश की एक परत थी जिसने वह अद्भुत चमक पैदा कर दी थी, जो चमक होत हुए भी चमक नहीं रही थी। उसके वक्षस्थल पर यह उभार दो दीपक मालूम होते थे, जो तालाब के गदने पानी पर जल रहे हा । बरसात के यही दिन थे । खिडकी के वाहर पीपल के पत्ते इसी तरह कप पा रहे थे। उम घाटन लडकी के दोनो कपड़े जो पानी में तरबतर हो चुके थे, एक गदले ढेर की शक्ल में पश पर पड थे और वह रणधीर के साथ चिपटी हुई थी। उसके नगे बदन की गर्मी रणधीर के शरीर मे ऐमी हलचल-सी पैदा कर रही थी जो सरत जाडे के दिनो मे नाइयो के गद लेक्नि गम हमामा मे नहाते समय अनुभव हुअा करती है। रात भर वह रणधीर के साथ चिपटी रही--दोना जैस एक दूमर मे गडडमडड हो गए थे। उहोने बडी मुश्किल स एक-दो बातें की होगी, क्योकि जो कुछ भी कहना-सुनना था, सासो, होठो और हाथो से तय हो बू/63