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पृष्ठ:ठाकुर-ठसक.djvu/३६

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ठाकुर- ठसक
 

डेल सो बनाय श्रआय मेलत सभा के बीच,

लोगन कबित्त कीबो जेट करि जानो है॥१२॥

सवथा।

मोतिन कैसी मनोहर माल गुहै तुक अच्छर जोरि बनावै । प्रेम को पंथ कथा हरिनाम की बात अनूठी बनाइ सुनावै ।। ठाकुर सो कवि भावत मोहि'जो राजसभा में बड़प्पन पावै । पण्डित लोक प्रवीनन को जोइ चित्त हरै सो कवित्त कहावै १३

निज स्वभाव.

सेवक सिपाही हम उन रजपूतन के,

दान युद्ध जुरिबे में नेकुजे न मुरके।

नीति देनवारे हैं मही के महिपालन को,

कवि उनहीं के जे सनेही साँचे उरके ॥

ठाकुर कहत हम बैरी बेवकूफन के,

जालिम दमाद हैं अदानियाँ ससुर के।

चोजन के चोर रस मौजन के पातसाहि,

ठाकुर कहावत पैचाकर चतुर के ॥१४॥

उपदेश
सवैया।

मन मेरो मतङ्ग भयौ मदमत्त सु माया समुद्र में आन धस्यो है। अरुशान महावत लाजकी आँकुस सङ्ककी साँकर नाहिं गस्यो है कह ठाकुर मैं हूँ उपाय किये वह आवै न हाथ कुसंग बस्यो है। नित घींचपैमीच न नीचहिंसूझतमोहके कीचकेबीचकँस्यौहै१५ कैसे सुचित्त भये निकसौ नहिं देवौ करौ सब के गलबाही । जे छल छिदून के छल तोकती हैं कपटी हित की अवगाहीं॥