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पृष्ठ:ठाकुर-ठसक.djvu/३७

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ठाकुर- ठसक
 

ते जुरि कै सब एक भई परपञ्च कछू रचिहैं ब्रज माही । हालचवाइन को बहुचाल सु लाल तुम्हें या दिखात की नाहीं। कहिबे सुनिबे की कळू नहियां लटी औ भलीको दुख पावने है । इनकी मरजी की सबै करने अपने मन को समझायने है ॥ कवि ठाकुर लाल के देखिबे कौं अब मन्त्र कोई उर ल्यावने है। इन चौंच दहाइन में परिकै समयो यह बीर बरावने है ॥ १७ ॥ एकही सो चित चाहिये ओर लो बीच दगा को परै नहिं डांको। मानिक सो मन बेचि के मोहन फेर कहा परखाइबो ताको ॥ ठाकुर काम न या सबको अब लाखन में परवान है जाको । प्रीति करै मैं लगै है कहा करिकै इक ओर निबाहिबो बांको १८

मेरी कही मान मन सपनौ सो जान जग,

छोड़ि अभिमान फेर ऐसो नहीं दाव रे ।

दीन कै दया को सीख सम्पति बिपत भीख,

एक 'लम दीख नहीं बने है बनाव रे ॥

ठाकुर कहत ब्रजचन्द चन्दमुखी राधा,

वृन्द्राबन बीथिन में हरि गुन गाव रे ।

चीति जात उमर भँडार तन रीति जात,

बीति जात काल के हवाले होत बावरे ॥१६॥

  • अद्धर को है अधार हरी नर बन्धक बन्धन मांझ रस्यो है।

दोस लगावत दीनदयालहिं हौंसु हिये हर भांति नस्यो है ठाकुर याकौ तु भेद न जानत माया के माँसन माझ फँस्यो है। घींच मैं मीच न नीचई सूझत मोह की कीच के बीच फँस्यो है गुनगाहक सो बिनती इतनी हकनाहक नाहिं ठगावने है। यह प्रेम बॉर के अन्तर सो पर नैन दलाल अंकावने है।

अद्भर= निराधार।