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पृष्ठ:ठाकुर-ठसक.djvu/४३

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ठाकुर- ठसक
१२
 

ठाकुर तापै धरो मुख बाल नै को बरनै उपमा वहि काल की।

पानन में तिय आनन यो दिपै चन्द चढ़ो मनो कंजकीनालकी

अपने अपने निज गेहन में, चढ़े दोऊ सनेह की नाव पै री।

अंगनान में भीजत प्रेम भरे समयो लखि मैं बलि जावं पैरो।

कह ठाकुर दोउन की रुचि सो रँग द्वै उमड़े दोउ ठाँव पै री।

सखी कारी घटा बरसै बरसाने पै गोरी घटा नँदगाँव पैरी ।


अनुराग


घरही-घर धैरु करें घरिहाइनै नांव धरे सब गाँवरी री।

तब ढोल दैदै बदनाम कियौ अब कौन की लाज लजाँवरी री॥

कवि ठाकुर नैन सो नैन लगै अब प्रेम सों क्यों न अघाँवरीरी।

अब होन दै बीस बिसैरी हँसी हिरदै बसी मूरति साँवरीरी॥४२॥

जब तें दसे मनमोहन जू तब तै अखियाँ ये लगी सो लगीं।

कुलकानि गई भगिवाही घरी ब्रजराज के प्रेम पगीं सो पगी ॥

कवि ठाकुर नेह के नेजन की उर मैं अनी आन खगी सो खगी।

अब गांव रे नाँव रे कोई धरोहम साँवरे रंग रगी सो रगी ४३॥

ऐसे कौं कहा कारज होत है जो मग माँझ कों दरसाने।

ये दिन ऐसे ही बीतत हैं हमहूँ तरसी तुम हूँ तरसाने ।

ठाकुर और विचार कळू नहिं ये अभिलाख हिये सरसाने ।

कै हमही बसिबे नंदगाँव की आपही आय बसौ बरसाने॥४४॥

वा निरमोहिन रूपकी रासि ओऊ उर हेत न ठावति है है।

बार हूँ बार बिलोकि घरी घरी सूरत तो पहिचानति है है

ठाकुर या मन की परतीत है जो पै स ह न मानति है

आवत हैं नित मेरे लिये इतनो तो विशेष कैजानति है ॥४॥

कहते न बनै कछवै चहुँघाँ सबकी सब भाँति बनै सहते।

घड बाहर धैरु उठोरी भटू मनमोहन लालन के चहते।