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पृष्ठ:ठाकुर-ठसक.djvu/५१

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ठाकुर- ठसक
२०
 

काठ ते एतो कठोर भयो जाइ वा दिन कोरे हुतेमधु माखन ।

हातै बनाइ कह डरकै मिलकै बिछुरे उड़ि के बिन पाँखन ॥

ठाकुर वे न सँदेसो लिखें चलि आवत हैं उत ते नर लाखन ।

जु कियो बदनाम सबै ब्रज में अब आँखें लगाइ दिखात न श्री आँखन


जब ते बिलोकि गई रावरो बदन बाल,

तब तें अचेत सी बियोग झार भुरई ।

हेम की लता सी चपला सी चार चांदमी सी,

मदन सताई पै न मैं जनाई भुरई।

ठाकुर कहत भूमि बिकल बिहाल परी,

देखिये गोपाल ताहि उपमा न जुरई ।

रति के भंडार ते दुराय कै चोराय मानो,

काहू आनि मंदिर में रूप रासि कुरई । ८५।


का कहि बाल गोपालहि योहिं तो हंग वान अमान लगे रो।

तो हित ध्यारी भये बदनाम अराम बिसार दिये घर के री।

ठाकुर तून तऊ पिघलो पग पार है लालन बार घने री।

प्रीतम की सु भई गति या छतिया कसको न कसाइन तरी।

स्वप्न दशन

सापने हौं फुलवाई गई हरि अंक भरी भुज कंठन मेलो।

हो सकुची कोउ सुन्दरी देखत लै जिन बांह सो बांह पछेली ।

ठाकर भार भये गये नोंद के देखहुँ, तो घर मां अकेली !

आंख खुली तब पास न सांवरो बाग न बावरो वृक्ष न बेली।

बसन्त

मौरन लगे हैं आम मन पलास पुनि,

बहत बयार आठो जाम निरदई है।

धाम धाम धकधक परति वियोगी जे,

बिरह वियोग अङ्ग अङ्ग निरसई है । .