पृष्ठ:ठाकुर-ठसक.djvu/५२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२१
ठाकुर- ठसक
 

ठाकुर कहत धसि बालम बिदेस रहे,

लिखत संदेसौ यह रीत नई लई है।

लीजिये खबर प्यारे कीजिये गहर निज,

अब रितुराज की अवाई भान भई है ॥८॥

आओ चलो देखिये जू लेखिये जनम धन्य,

केलर गुलाल सो सरीर साधियतु है।

और मैं कहां लौं कहीं नाम नर नारिन के,

दुःख ते निकासि सुःख भौन धांधियतु है।

ठाकुर कहत उन्हें साँवरो दिखावने है,

ताते हम बातन को ब्यौत नाघियतु है।

प्रेम को न अंत है महंत है मनोज आज,

राधिका के कंतहि बसन्त बांधियतु है ॥६॥

गावे पिकबैनी मृगनैनी बजावै बीन,

नाचें चन्द्रमुखी चार चाउ की चटक

कीरतिकुमारी बृषभान की दुलारी राधे,

अटकी विलोकि लोक लाज की अटक पै

ठाकुर कहत चोर केसर के रंग रंगो,

अतर पगो सो मन मोहै पीत पर पै।

देख तो देखात कैसौ राजत रसीलो आज,

आलो री बसंत बनमाली के मुकट पै ॥६॥


चौरे रसालन की चढ़ि डारन कृकत कैलिया मौन गहै ना।

सीतल मंद सुगन्धित बीर समीर लगे तन धीर रहै ना ।।

ठाकुर कुजन जन गुंजत भौरन को चै चुपैबो चहै ना

व्याकुल कीन्हो बसंत बनाय कैजाय के कन्त सों कोऊ कहै ना

चय, समूह