पृष्ठ:ठाकुर-ठसक.djvu/७६

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ठाकुर-ठसक ठाकुर कहत उकराइन भई हो मुनि, मुनि कै उराहनो जी हो रहो अधर को। घरी पार होइ तो बचाये रहीं मेरी बीर, देहरी दुआर दुख आठहू पहर को ॥१०॥ बैठे पटा पर विप्र बखानै लगी पलका सो सुनै सियरा सों जोतिष देख ले ऐसी कहै गठियाय ले आंचर के छियरा सों। ठाकुर वा दिन देही कहा यह बूझिले बात सबै जियरा सों। मोहन को मन तो सो लगै ते लगै मनमोहन के हियरा सो। विप्र की बानी सुने सकुची कही वा दिन तेरे विषाद नसैहौं रंक ते कै हौ निसंक महा मनमोहन को जब अंक लगैहौं । ठाकुर मीठो करौं मुख रावरो पावँ परौ जग कीरति गैहीं। हाथन चूरा गरे मणिमाल सु कानन को मुकुताहल देहौं। दरियाव सिंह ( चातुर) ठाकुर के पुत्र (कविता काल १८८० वि०) अकाल के कवित्त । (चातुर के एक बहुत बड़ा अकाल पड़ा था, अना वृष्टि के कारण लोग बहुत दुखी थे। लोग कहते हैं कि उस लमय चातुर जी ने भगवान की प्रार्थना में ये कवित्त कहे थे। वे धूप में खड़े होकर तब तक कविता कहते रहे जब तक पानी बरसना नहीं आरम्भ हुआ। उन्होंने पच्चीस कवित्त कहे थे, उनमें से हमें पाँच कवित्त मिले हैं।) गुनन गंभीर रघुबीर हे रमा के पति, तीछन तपन ताप ईछन जुड़ाइये । सूखीजात साखा सास्त्र विरद की दूखीजात, भूखी जात अवनी न रीति अजमाइये । समय