पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/११४

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६. प्रतीक में उनका वाद से वादियों का मुंह बंद किया जा सकता है; पर उससे हृदय का प्रवाह नहीं रुक सकता। प्राचार्यों को मनोविकारों का प्रबंध करना ही पड़ता है। जिस वासना भावना वा धारणा की रक्षा के लिये तर्क किया जाता है किंवा तरह तरह के वादों को जन्म दिया जाता है उसकी उपेक्षा मानव हृदय तो कर नहीं सकता। निदान सूफियों ने इसलाम की कहरता एवं शासकों की क्रूरता से प्रात्मरक्षा के लिये जो यन किए उनके संबंध में अधिक कहने की आवश्यकता नहीं । सूफी साहित्य के मर्मज्ञों से यह बात छिपी नहीं है कि सूफियों के रक्षक उनके प्रतीक ही रहे हैं। यों तो किसी भी भक्ति-भावना में प्रतीकों की प्रतिष्ठा होती है, पर वास्तव में तसन्युफ पूरा प्रसार है। प्रतीक ही सूफी साहित्य के राजा हैं। उनकी अनुमति के बिना सूफियों के क्षेत्र में पदार्पण करना एक सामान्य अपराध है । प्रतीकों के महत्व को समझ लेने पर तसव्वुफ एक सरल चीज हो जाती है । उसके भेद आप ही खुल जाते हैं । किंतु प्रतीकों से अनभिज्ञ रहने पर सूफियों का मर्म मिलना तो दूर रहा उनकी एक बात भी समझ में नहीं पाती। जो लोग सूफियों के प्रतीकों से अपरिचित हैं और उनकी पद्धति को नहीं जानते उनकी दृष्टि में तसव्वुफ एक अन्त दर्शन और कामुकों का विलास है । उसमें विषय-वासना और भोग-विलास के अतिरिक्त और जो कुछ भी है वह घोर पाखंड वा पक्का ढोंग है। यही कारण है कि सूफी बराबर ढोंगी की उपाधि से विभूषित होते रहे हैं। सूफी पाप-पुण्य, आचार-विचार आदि का भेद भावना में मानते हैं, किसी प्रतीक या पद्धति विशेष में नहीं । अतएव जो लोग उनके प्रतीकों की उपेक्षा कर प्रेम के अखाड़े में अपनी काम-कला दिखाते हैं उनके अपकष का कारण उनका भोग-विलास ही है, सूफियों का प्रेम-प्रतीक कदापि नहीं। सूफी तो प्रेम को सब प्रतीकों में श्रेष्ठ बताते हैं, और उसको लिप्सा तथा वासना से सर्वथा मुक्त मानते हैं।