पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/११५

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तसव्वुफ अथवा सूफीमत फ़ारिज ने स्पष्ट कहा है कि प्रतीकों के प्रयोग से दो लाभ प्रत्यक्ष होते हैं। एक तो प्रतीकों की ओट लेने से धर्म-बाधा टल जाती है दूसरे उनके उपयोग से उन बातों की अभिव्यंजना भी खूब हो जाती है जिनके निदर्शन में वाणी असमर्थ अथवा मूक होती है । फ़ारिज़ के इस कथन में किसी को आपत्ति नहीं हो सकती। यह तो प्रत्येक की देखी-सुनी बात है कि प्रतीकों की आड़ में सूफियों ने इसलाम के कर्मकांड का शिकार किया और फिर भी उन पर किसी प्रकार का दोषारोपण नहीं हुआ । उनको दंड तो तब दिया गया जब वे मैदान में आकर खुले आम खुलकर 'गैर इसलामी' बातों का प्रचार और इसलाम की भर्त्सना करने लगे। हल्लाज के प्राण- दंड का प्रधान कारण उसका 'अनाहक नहीं, बल्कि उसका खुलेआम अपने को हक प्रतिपादित करना था । यदि वह अपने को हक साबित करने के फेर में न पड़ता और सूफियों की पुरानी पद्धति, याने प्रतीकों के रूप में अपने विचारों को व्यक्त करता तो कभी उसकी दुर्गति न होती । हक के दावेदार अनेक सूफी निकले, जो अपने को हल्लाज से कम अनल्हत नहीं समझते थे, और इधर उधर उसकी घोषणा भी लुक छिप कर खूब करते फिरते थे; किंतु कभी हल्लाज की खुली प्रणाली पर न चलते थे । उनको प्रतीकों से प्रेम था और उनके महत्व को वे जानते भी थे, जिससे इसलाम में उनकी प्रतिष्ठा बनी रही, और उसी के साथ उनके तसव्वुफ का प्रचार भी मजे में होता रहा । अवश्य ही प्रतीकों के प्रयोग से गुह्यविद्या की मर्यादा बनी रहती है और लोगों को उसका बोध भी सुगमता से हो जाता है । सूफी भी अपनी विद्या को गुह्य रखते हैं। उनका तो कहना ही है कि मुहम्मद साहब ने इस विद्या का प्रचार गुप्त रीति से किया। गजाली ने तो इसको गुप्त रखने तथा अधिकारी पर ही प्रकट करने का विधान भी कर दिया था। सूफी सदा से इस बात पर जोर देते आ रहे हैं कि तसव्वुफ की व्याख्या इस ढंग से होनी चाहिए कि उसकी गुह्यता भी बनी रहे और (१) स्टीज इन इसलामिक मिस्टोसीम, पृ० २३२,२५७ । (२) स्टडीज इन तसव्वुफ़, पृ० १३२ । (३) मुसलिम थियालोजी, पृ. २४० ।