पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१४८

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अध्यात्म मुहम्मद साहब के निधन के उपरांत मुसलिम समुदाय में 'ईमान', 'इसलाम' एवं 'दीन' के संबंध में जो प्रश्न उठे उनका समुचित समाधान सहज न था । उनसे सब से बड़ी बात तो यह उत्पन्न हुई कि मुहम्मद साहब के व्यक्तित्व तथा कुरान की परस्पर उलझन के कारण इसलाम में तर्क को स्थान मिला। इसलाम को तौहीद' का गर्व था । मुसलमान समझते थे कि तौहीद का सारा श्रेय मुहम्मद साहब को ही है। परंतु मनुष्य मननशील प्राणी है । उसका बुद्धि सहसा शांत नहीं होती। जिज्ञासा के उपशमन के लिये उसे छानबीन करनी ही पड़ती है। सो मनीषियों ने देखा कि इसलाम का अल्लाह एक परम देवता से किसी प्रकार आगे नहीं बढ़ सकता । उसके अतिरिक्त अन्य देवता सेव्य नहीं है सो तो ठीक है, पर अन्य सत्ताएँ तो हैं ? फरिश्तों की बात अभी अलग रखिए। स्वयं मुहम्मदसाहब की वास्तविक सत्ता क्या है ? इंसान और अल्लाह से उनका क्या संबंध है ? अब ऐसे ऐसे विकट परंतु सहज और सच्चे प्रश्नों का समाधान तौहीद के प्रतिपादन के लिये अनिवार्य था। ऋषियों के संमुख जिस प्रकार आत्मा और ब्रह्म के समन्वय का प्रश्न था उसी प्रकार सूफियों के सामने अल्लाह और मुहम्मद के संबंध का निदान उनमें भी चिन्तन का प्रवेश हो ही गया। परंतु कुरान में अल्लाह और मुहम्मद का संबंध बहुत कुछ स्पष्ट था। अल्लाह वस्तुतः एक अद्वितीय अधिपति थे तो मुहम्मद उनके अन्तिम और प्रिय दूत । अंतिम रसूल उसके आदेश पर ही तो चल रहे थे? हाँ, अन्य रसूलों से उनमें इतनी विशेषता अवश्य थी कि उनका नाम भी अल्लाह की उपासना का अंग बन गया था । परंतु ज्ञानी सूफी तो इसलाम को इस आदेश भूमि से उठाकर किसी उच्च सात्त्विक आधार पर खड़ा करना चाहते थे। उधर मसीहियों ने मसीह को जो रूप दे दिया था वह कोरे विश्वास पर ही निर्भर न था। उसमें दर्शन का भी पूरा पूरा योग हो गया था। यूहन्ना अथवा चौथे सुसमाचार के मसीह वस्तुतः एक अलौकिक व्यक्ति । उनका संबंध परमपिता परमात्मा से इतना घनिष्ट तथा औरस कर दिया (१) दी मुसलिम डाक्ट्रिन श्राव गाड, पृ० २१ ।