पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१५६

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अध्यात्म नता है । रहमान यद्यपि अल्लाह का नाम सा हो गया है तथापि उसका प्रयोग रब्ब से बहुत कम हुआ है। रब्ब की पुनरावृत्ति यदि कुरान में ६६७ बार हुई है तो रहमान की केवल ५६० बार। बात यह है कि अल्लाह के रहम से सृष्टि होती है और उसके तेज से उसका संचालन होता है। उसका प्रथम रूप ब्रह्मा का है तो द्वितीय विष्णु का । इसी विष्णु में रुद्रता भी निहित है। संहार का केवल एक दिन नियत होने के कारण सूफी रुद्र रूप को अलग नहीं कर सकते । इस दृष्टि से विचार करने पर अहद से बाहिद, वाहिद से रहमान, और रहमान से रब्ब की ओर क्रमशः विचार का उतार दिखाई पड़ता है और जिली का मत साधु नहीं ठहरता । किंतु वह इसलाम के अनुरूप अधिक अवश्य है । अहद और वाहिद में भी भेद है। 'अहद' को 'केवल' और 'वाहिंद' को 'एक' कह सकते हैं। एक में अनेक का भाव छिया रहता है। वह संख्या से संबद्ध है। अहद में यह बात नहीं होती । अहद के पहले की अवस्था को 'जात' कहना ठीक है। जात से वाहिद की प्रक्रिया क्या है इसको भी थोड़ा देख लेना चाहिए। बात यह है कि मनुष्य की शुद्धि जहाँ तक देख सकती है वहीं सब का अंत नहीं हो जाता। बस वह स्पष्ट रूप से अधिक से अधिक यहीं तक कह सकता है कि वस्तुतः परम सत्ता अहद है, केवल है, अद्वैत है पर उसका अथ वा मूल सर्वथा तमसावृत वा अज्ञेय ही है । बुद्धि को उसका ठीक ठीक बोध नहीं हो सकता। सूफी इसको 'अमा' की अवस्था कहते हैं। उनकी धारणा है कि व्यक्त होने की भावना से जब 'वह' अग्रसर होता है तब हम उसको अहद के रूप में पाते हैं। अहद में तद्भाव और अहंभाव का समावेश रहता है । सूफी इन्हीं को 'होविय्या' और 'अनिय्या' का भाव कहते हैं । प्रथम बातिन है तो द्वितीय जाहिर। पहली अव्यक्त है तो दूसरी व्यक्त । अहंभाव ने जो रूप धारण किया वही एक अथवा वाहिद बना । फिर अभि- मान से अनेक का ताँता बैंधा। इलाह और मलहम का व्यापार चल पड़ा । वास्तव में यह इल ही अल्लाह अथवा मनीषियों का ईश्वर है, कोई अन्य सत्ता नहीं । अल्लाह का प्रवचन है कि आत्मज्ञापन की कामना से उसने मृष्टि की रचना की। ऋषियों का मत है कि रमण की कामना से पुरुष द्विधा फिर बहुधा हो जाता