पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१५५

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तसव्वुफ अथवा सूफीमत करने पर किसी उपास्य की उद्भावना कैसे हो सकती है ? हाँ, परम तत्व की स्थापना की जा सकती है। कहने की बात नहीं कि अरबी की बातें यद्यपि क्वेिक और तर्क पर अवलंबित हैं तथापि उनसे जिली को संतोष न हो सका। उसने इसलाम की प्रबल प्रेरणा से गजाली का पक्ष लिया और अरबी के पश्नों के समाधान की चेष्टा और उसके प्राक्षेपों के निराकरण का प्रयत्न बहुत कुछ उसी ढंग पर किया जिस ढंग पर रामानुजाचार्य ने शंकराचार्य के आक्षेपों का समाधान किया था। किन्तु रामानुज ने शंकर का विरोध वहीं तक किया जहाँ तक उनकी दृष्टि में अद्वैत से भक्ति-भाव का विरोध था। परंतु जिली ने तो अरबी का खंडन यहाँ तक कर दिया कि उसके मत में सम्यक् ज्ञान का अभाव और इसलाम का पूरा प्रमार फूट पड़ा। जिली ने अल्लाह के स्वभाव का जो परिचय दिया उसमें 'ईमान' का पूरा पूरा योग है। उसकी दृष्टि में इलाह ही परम सत्ता है। 'अहद', वाहिद', 'रहमान' और 'रब्ब' इसी का क्रमिक विकास अथवा अवतरण है। विचारने की बात है कि 'इलाह' अहद से भी पहले किस प्रकार से रह सकता है। क्योंकि उसमें तो हक के साथ ही खल्क का भाव भी निहित है । उसके प्रतिपादन के लिये 'मलहम' ( सेवक) जरूरी है। जिली स्वतः इस उलझन को स्वीकार करता है, किंतु इसलाम की रक्षा और भक्ति-भावना की तुष्टि के लिये तर्क का प्रयोग विपरीत दिशा में करता है। भक्तों के भगवान् सदा से परात्पर रहते और उपास्य ६नते पा रहे हैं, अतः जिली के इस विवेचन में कुछ अनोखी बात नहीं। कृष्णभक्तों ने भी तो कृष्ण को उसी रूप में अंकित किया है जिस रूप में जिली इलाह' का उल्लेख कर रहा है ? अस्तु जिली का इलाह वेदांतियों का ईश्वर कहा जा सकता है। उसके इस इलाह के वास्तव में दो पक्ष हैं, एक अहद और वाहिद दूसरा रहमान और रब्ब । प्रथम पक्ष का संबंध उसकी सत्ता से है। जिसको हम उसकी सत्ता का गुण कह सकते हैं, और द्वितीय का संबंध उसकी उपाधि या व्यापार से है, अतः हम उसको उसके व्यवहार का गुण मान सकते हैं। कुरान के प्रेमी भलीभाँति जानते हैं कि उसमें रब की प्रधा' (१) स्टडीज इन इसलामिक मिस्टीसिज्म, पृ० ९८ ।