पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/२१७

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तसव्वुफ अथवा सूफीमत को सूफियों से अलग करने के लिये ही वे ऐसा करते हैं। वही' रसूल पर उतरती है और 'इलहाम' सूफियों को होता है,वस, यही तो उनमें भेद है? हाँ, वही और इलहाम प्रायः दोनों ही 'हाल' की दशा में होते हैं और उन्हीं के द्वारा शामी अपने मत को आसमानी सिद्ध भी करते हैं । सो, इलहाम की प्रतिष्ठा शामी मतों में तबतक खूब रही जब तक बुद्धि पाप की जननी और आदम के पतन का कारण समझी जाती थी। परंतु, जब बुद्धि योग से आदमी आसमान में उड़ने लगा और स्वर्ग-सुख की अवहेलना कर आत्मानंद में लीन हुआ तब 'वही' और 'इल हाम' की पूछ कहाँ ? इसमें संदेह नहीं कि आदत और आलस्य के कारण श्राज भी बहुत से लोग इलहामी हैं; पर इसी के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि ज्ञान के प्रकाश और विज्ञान के विश्लेषण से वे कभी कुछ भी प्रभावित न होंगे और सदैव उसी कठमुल्ली कठघरे में पड़े पड़े इलहाम का गुणगान करेंगे और बात बात में किसी का दीदार देखेंगे। मसीहियो ने जब आर्य-दर्शन का अध्ययन फिर से प्रारम्भ किया और तर्क तथा विज्ञान के आधार पर अपने मत का विवेचन करना चाहा तब उन्हें स्पष्ट अवगत हो गया कि पादरियों की बातों पर अधिक दिन तक विश्वास नहीं किया जा सकता । दार्शनिकों में जो धार्मिक थे उन्होंने देखा कि सन्तों की अनुभूतियों को ठीक ठीक समझने के लिये वासना या बुद्धि ही सब कुछ नहीं है। वे सुन चुके थे कि परम तत्व अनुभवगम्य है, तर्क से उसकी सिद्धि नहीं हो सकती। वे यह भी जानते थे कि मनीषी सूफियों ने मजहबी दबाव के कारण म्वारिफ को स्वीकार किया था और किसी कदर वे इलहाम के भी कायल बने रहे थे । निदान, यूरोप के धार्मिक द्रष्टाओं ने 'इंदाशन' किंवा प्रज्ञा का प्रतिपादन किया । इंश्यूशन की उद्भावना से धर्म और दर्शन का यदि ठोक ठोक समन्वय हो जाता तो कोई बात न थी। किन्तु तार्किकों एवं हेतुवादियों का मुंह बंद करने के लिए विवेकी संती ने जिस प्रज्ञा का प्रतिपादन किया उसकी प्रतिष्टा अच्छी तरह होने भी न पाई थी कि लोग उसे ले उड्डे और इलहाम की दाद देने लगे। पर थोड़े ही दिनों में यूरोप ठोस विज्ञान का भक्त बन गया और 'सुसमाचार' तथा पादरियों के कारनामों की उपेक्षा कर तत्त्व-चिंतन में