पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/२१६

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भविष्य और विज्ञान के प्रभाव से जपाट तथा खूसट जीव भेदिया' बनने का ढोंग न रच सकेंगे। वे दीन और दुनिया दोनों से अलग कर दिए जायेंगे । किन्तु सच्चे सूफी और सिद्ध मुरशिद की पूरी प्रतिष्ठा होगी और लोग उनकी मुरीदी में गर्व का अनुभव करेंगे। सच तो यह है कि इंसान बिना मुरीदी के रह भी नहीं सकता। उसके सिद्ध होने की तो बात ही निराली है। आधुनिक अनुसंधानों ने सिद्ध कर दिया है कि आसन और प्राणायाम से शरीर तथा मस्तिष्क शुद्ध होते है और उनके उचित उपयोग से आयु भी बढ़ जाती है, पर सूफिस का ध्येय यह तो नहीं होता कि वे जिक्र और फिक्र के व्यायाम से प्रायु और स्वास्थ्य प्राप्त करें और संमार में अच्छी तरह रह सके। उनके सामने तो सदैव प्रियतम के साक्षात्कार का प्रश्न रहता है और उसी की प्राप्ति के लिये वे रात दिन चिंतन और मुमिरन में जुटे रहते हैं । जिस महामिलन की कामना से सूफी प्रेम-पथ पर निकल पड़ते है उसकी पूर्ति के लिये फिक्र के अतिरिक्त इंसान और कर ही क्या सकता है ? जिक्र और फिक करने से सूफी अपने उपास्य में तन्मय हो जाते हैं। इसी तन्मयताके लिये सूफी अभ्यास करते हैं। अभ्यास करते करते एक और तो साधक का चित्त साध्य में लीन हो जाता है और दूसरी ओर ध्याता अपने ध्येय का साक्षात्कार इसलिये कर लेता है कि उस संसार की चिंता नहीं रह जाती। अभ्यास के कारण वह उससे मुक्त हो जाता है। भावना के क्षेत्र में यह एक सामान्य बात है कि जो जिसका ध्यान करता है वही वह हो जाता है । अस्तु, सूफियों के अभ्यास में विज्ञान के प्रकाशन से भी कुछ क्षति नहीं हो सकती 1 हाँ, यह बात दूसरी है कि मनोविज्ञान के प्रताप से उन्हें अपने लक्ष्य को भावना का प्रसव समझ लेना पड़े और साक्षात्कार की अलौकिकता को लौकिकता से बिल्कुल भिन्न न मानना पड़े। सूफीमत के इतिहास में हमने देख लिया है कि शामी मत का सारा महल इलहाम पर टिका है। उन नबियों की बातें न मानिए जो दरवेशों के परदादा और मादनभाव के जन्मदाता थे। पर उन रसूलों की उपेक्षा तो नहीं कर सकते जिन पर आसमानी किताबें नाजिल हुई। वही' और 'इलहाम' में मुसलिम जो भेद करते हैं वह किसी तात्त्विक आधार पर नहीं, बल्कि व्यक्तियों पर निर्भर है । रसूलों