पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/३८

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विकास समष्टि एवं व्यष्टि की यह भावना मसीही मत में भी फूलती फलती रही और आगे चलकर उसमें माधुर्य या मादन-भाव का पूरा प्रचार भी हो गया। मादन-भाव अथवा देवात्मक रति-विधान में आलंबन की विशेषता ही मुख्य होती है । यह अालंबन जितना ही मोहक होता है उतना ही अलभ्य भी। सच बात तो यह है कि इस अलभ्यता के कारण ही रति को परम प्रेम की पदवी मिलती है। यदि आलंबन सहज में उपलब्ध हो जाय तो शायद प्रेम को अलौकिक सिद्ध करने का साहस किसी भी विचारशील व्यक्ति को न हो । सूफियों ने इश्क मजाजी को इश्क हकीकी की सीढ़ी मानकर यह स्पष्ट कर दिया कि इश्क मजाजी भी कोई चीज है । बिना उसकी सहायता लिये इश्क हकीकी का गीत गाना पाषंड है । सूफियों ने इश्क हकीकी को इश्क मजाजी के परदे मे इस तरह दिखाया है कि उसको देख- कर सहसा यह नहीं कहा जा सकता कि उनका वास्तविक आलंबन अमरद है या अल्लाह है। 'गीतों का गीत' 'श्रेष्ठगीत' अथवा 'सुलैमान के गीत' में भी प्रेम की ठीक यही दशा है। अधिकांश अर्वाचीन विद्वानों का, जो मादन-भाव के विरोधी तथा विज्ञान के कट्टर भक्त हैं, मत है कि प्रकृत गीतों में ईश्वर के प्रेम का वर्णन नहीं है। उनका कहना है कि प्राचीन काल में विवाह के अवसर पर जो गीत गाए जाते थे उन्हीं के संग्रह का नाम 'श्रेष्ठगीत' है। जो लोग उक्त गीतों को एक ही व्यक्ति की रचना समझते हैं उनमें भी कुछ ऐसे हैं जो इनको विवाहपरक ही मानते हैं, उन्हें (१) अमरद फारसी का प्रचलित माशक है। इसके संबंध में श्री इरिऔधजी का काथन "उक्त भाषाओं (अरबी, फारसी और उर्दू) में माशुक आम तौर से अमरद होता है" ( रसकलस, भूमिका, पृ० १२३ ) । आप अन्यत्र लिखते है-"तब भला मरदा. नगी कैसे रहे, भूद अनवा अब मरद अमरद बने ।" "स्पष्ट अर्थ इसका यह है कि मूंछ बनवाकर मरद अमरद अर्थात नपुंसक या हिना वा जनाना बन जावे । परन्तु लष से व्यंजना यह है कि बिना मूंछ का लौंडा बन जावे, क्योकि फारती में बिना मूंछ-दादी के लौंडे को अमरद कहते हैं" ( बोलचाल, भूमिका, १० ६७)। अमरद वास्तव में अरबी शब्द है, फारसी के प्रचलित शब्द मर्द से उसका कुछ भी संबंध नहीं है ।