चरनी, चरी के लिए अलग गोदाम, रामजस के अधीन था। अन्न की व्यवस्था राजो करती। मलिया और रामदीन की सगाई हो गई थी। उनके सामने एक छोटा-सा बालक खेलने लगा।
किंतु तितली अपनी इस एकांत साधना में कभी-कभी चौंक उठती थी। मोहन के मुंह पर गम्भीर विषाद की रेखा कभी-कभी स्पष्ट होकर तितली को विचलित कर देती थी।
मोहन का अभिन्न मित्र था रामजस। वह अभी तीस बरस का नहीं हुआ था, किंतु उसके मुंह पर वृद्धों की-सी निराशा थी। उसके हृदय में उल्लास तभी होता, जब मोहन के साथ किसी संध्या में गंगा की कछार रौंदते हुए वह घूमता था। वह चलता जाता था। और उसकी पुरानी बातों का अंत न था। किस तरह उसका खेत चला गया, कैसे लाठी चली, कैसे मधुबन भइया ने उसकी रक्षा की, यही उसकी बात-चीत का विषय था। मोहन ध्यानमग्न तपस्वी की तरह उन बातों को सुना करता।
मोहन भी अब चौदह बरस का हो गया था। वह सबसे तो नहीं, किंतु राजो से नटखटपन किए बिना नहीं मानता था। उसे चिढ़ाता, मुंह बनाता; कभी-कभी नोच-खसोट भी करता। पर उस दुलार से कृत्रिम-रोष प्रकट करके भी बाल-विधवा राजो एक प्रकार का संतोष ही पाती थी।
सच तो यह है कि राजो ने ही उसे यह सब सिखाया था। तितली कभी-कभी इसके लिए राजो को बात भी सुनाती। पर वह कह देती कि चल, तुझसे तो यह पाजीपन नहीं करता। इतना ही पाजी तो मधुबन भी था लड़कपन में, यह भी अपने बाप का बेटा है न।
राजो के मन में मधुबन के बाल्यकाल का स्नेहपूर्ण चित्र उपस्थित करते हुए मोहन उसको सांत्वना दिया करता।
मोहन कभी-कभी माता के गंभीर प्यार से ऊबकर रामजस के साथ घूमने चला जाता। वह आज गंगा के किनारे-किनारे घूम रहा था। संध्या समीप थी। सेवार और काई की गंध गंगा के छिछले जल से निकल रही थी। पक्षियों के झुण्ड उड़ते हुए, गंगा की शांत जलधारा में अपना क्षणिक प्रतिबिम्ब छोड़ जाते थे। वहां की वायु सहज शतिल थी। सब जैसे रामजस के हृदय की तरह उदास था।
रामजस को आज कुछ बात-चीत न करते देखकर मोहन उव्दिग्न हो उठा। उसे इतना चलना खलने लगा। न जाने क्यों, उसको रामजस से हंसी करने को सूझी। उसने पूछा चाचा! तुमने ब्याह क्यों नहीं किया? बुआ तो कहती थी, लड़की बड़ी अच्छी है। तुम्हीं ने नाहीं कर दी।
हां रे मोहन! लड़की अच्छी होती है, यह तू जानने लगा। कह तो, मैं ब्याह करके क्या करूंगा? उसको खाने के लिए कौन देगा?
मैं दूंगा, चाचा! यह सब इतना-सा अन्न कोठरी में रखा रहता है। हर साल देखता हूं कि उसमें घुन लगते हैं, तब बुआ उसको पिसाकर इधर-उधर बांटती फिरती है। चाची को खाना न मिलेगा! वाह, मैं बुआ की गर्दन पर जहां चढ़ा, सीधे से थाली परोस देगी।
तुम बड़े बहादुर हो। क्या कहना! पर भाई, अब तो मैं तुम्हारा ही ब्याह करूंगा! अपना तो चिता पर होगा।
छी-छी चाचा, तुम्हीं न कहते हो कि बुरी बात न कहनी चाहिए। और अब तुम्हीं...