पृष्ठ:तितली.djvu/३६

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आज भी दिखाई देता है, तब भी उस गोदाम के हौज और पक्की नालियां अपना खाली मुंह खोले पड़ी रहती थीं , जिससे नीम की छाया में गाएं बैठकर विश्राम लेती थीं । पर बार्टली साहब को वह ऊंचे टीले का बंगला, जिसके नीचे बड़ा - सा ताल था , बहुत ही पसंद था । नील गोदाम बंद हो जाने पर भी उनका बहुत - सा रुपया दादनी में फंसा था । किसानों को नील बोना तो बंद कर देना पड़ा , पर रुपया देना ही पड़ता। अन्न की खेती से उतना रुपया कहां निकलता , इसलिए आस- पास के किसानों में बड़ी हलचल मची थी । बार्टली के किसान - आसामियों में एक देवनन्दन भी थे। मैं उनका आश्रित ब्राह्मण था । मुझे अन्न मिलता था और मैं काशी में जाकर पढ़ता था । काशी की उन दिनों की पंडित मंडली में स्वामी दयानन्द के आ जाने से हलचल मची हुई थी । दुर्गाकुंड के उस शास्त्रार्थ में मैं भी अपने गुरुजी के साथ दर्शक - रूप से था ; जिसमें स्वामीजी के साथ बनारसी चाल चली गई थी । ताली तो मैंने भी पीट दी थी । मैं क्वीन्स कॉलेज के एग्लो - संस्कृत -विभाग में पढ़ता था । मुझे वह नाटक अच्छा न लगा । उस निर्भीक संन्यासी की ओर मेरा मन आकर्षित हो गया । वहां से लौटकर गुरुजी से मेरी कहा - सुनी हो गई , और जब मैं स्वामीजी का पक्ष समर्थन करने लगा, तो गुरुजी ने मुझे नास्तिक कहकर फटकारा । देवनन्दन का पत्र भी मुझे मिल चुका था कि कई कारणों से अन्न देना वह बंद करते हैं । मैं अपनी गठरी पीठ पर लादे हुए झुंझलाहट से भरा नील -गोदाम के नीचे से अपने गांव में लौटा जा रहा था । देखा कि देवनन्दन को नील कोठी का पियादा काले खां पकड़े हुए ले जा रहा है । देवनन्दन सिंहपुर के प्रमुख किसान और आप ही लोगों के जाति -बांधव थे। उनकी यह दशा ! रोम - रोम उनके अन्न से पला था । मैं भी उनके साथ बार्टली के सामने जा पहुंचा। _ उस समय कुर्सियों पर बैठे हुए बार्टली और उनकी बहन जेन आपस में कुछ बातें कर रहे थे। जेन ने कहा — भाई! इधर जब से वह चले गए हैं , मेरी चिंता बढ़ रही है । न जाने क्यों , मुझे उन पर संदेह होने लगा है। मैं भी घर जाना चाहती हूं । तुम जानती हो कि मैंने स्मिथ का कभी अपमान नहीं किया , और सच तो यह है कि मैं उसको प्यार करता हूं। किंतु क्या करूं , उसका जैसा उग्र स्वभाव है, वह तो तुम जानती हो । मैं भला अभी काम छोड़कर कैसे चलूंगा! - बार्टली ने कहा । जब यह काम ही बंद हो गया , तब यहां रहने का क्या काम है। देखती हूं कि जो रुपया तुम्हारा निकल भी आता है, उसे यहां जमींदारी में फंसाते जा रहे हो । क्या तुम यहीं बसना चाहते हो ? — जेन ने कहा । तब तुम क्या चाहती हो । — बार्टली ने अन्यमनस्क भाव से पूर्व की धीरे - धीरे सूखने वाली झील को देखते हुए कहा । नील का काम बंद हो गया , पर अब हम लोगों को रुपए की कमी नहीं। जो कुछ हो , यहां से बेचकर इंग्लैंड लौट चलें । मेरा प्रसव- काल समीप है । मैं गांव के घर में ही जाकर रहना चाहती हूं । समझा न ? — जेन ने सरलता से कहा। इतनी जल्दी! असंभव, अभी बहुत रुपया बाकी पड़ा है। ठहरो, मैं पहले इन लोगों से बात कर लूं । — बार्टली ने रूखे स्वर से कहा । देवनन्दन ने सलाम करते हुए कुछ कहना चाहा कि बीच ही में बात काटकर काले खां