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पृष्ठ:तितली.djvu/६६

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चुका था और पुलिस ने किसी तरह अपराध प्रमाणित कर दिया था! साथ ही, इंद्रदेव-जैसे प्रतिष्ठित जमींदार का पत्र भी रिफ़ार्मेटरी भेजने के लिए पहुंच गया था।


8.

शैला का सब सामान नील-कोठी में चला गया था। वह छावनी में आई थी। कल के संबंध में कुछ इंद्रदेव से कहने; क्योंकि इंद्रदेव को उसके भावी धर्मपरिवर्तन की बात नहीं मालूम थी।

भीतर से कृष्णमोहन चिक हटाकर निकला। उसने हंसते हुए नमस्कार किया। शैला ने पूछा—बड़ी सरकार कहां हैं?

पूजा पर।

और बीबी-रानी?

मालूम नहीं—कहता हुआ कृष्णमोहन चला गया।

शैला लौटकर इंद्रदेव के कमरे के पास आई। आज उसे वही कमरा अपरिचित-सा दिखाई पड़ा! मलिया को उधर से आते हुए देखकर शैला ने पूछा-इंद्रदेव कहां हैं?

एक साहब आए हैं। उन्हीं के पास छोटी कोठी गए हैं? आप बैठिए। मैं बीबी-रानी से कहती हूं।

शैला कमरे के भीतर चली गई! सब अस्त-व्यस्त! किताबें बिखरी पड़ी थीं। कपड़े खूंटियों पर लदे हुए थे। फूलदान में कई दिन का गुलाब अपनी मुरझाई हुई दशा में पंखुड़ियां गिरा रहा था। गर्द की भी कमी नहीं। वह एक कुर्सी पर बैठ गई।

मलिया ने लैम्प जला दिया। बैठे-बैठे कुछ पढ़ने की इच्छा से शैला ने इधर-उधर देखा। मेज पर जिल्द बंधी हुई एक छोटी-सी पुस्तक पड़ी थी। वह खोलकर देखने लगी।

किंतु वह पुस्तक न होकर इंद्रदेव की डायरी थी। उसे आश्चर्य हुआ-इंद्रदेव कब से डायरी लिखने लगे।

शैला इधर-उधर पन्ने उलटने लगी। कुतूहल बढ़ा। उसे पढ़ना ही पड़ा-सोमवार की आधी रात थी। लैम्प के सामने पुस्तक उलटकर रखने जा रहा था। मुझे झपकी आने लगी थी। चिक के बाहर किसी की छाया का आभास मिला—मैं आंख मींचकर कहना ही चाहता था-'कौन'? फिर न जाने क्यों चुप रहा। कुछ फुसफुसाहट हुई। दो स्त्रियां बातें करने लगी थीं। उन बातों में मेरी भी चर्चा रही। मुझे नींद आ रही थी। सुनता भी जाता था। वह कोई संदेश की बात थी। मैं पूरा सुनकर भी सो गया। और नींद खुलने पर जितना ही मैं उन बातों का स्मरण करना चाहता, वे भूलने लगी। मन में न जाने क्यों घबराहट हुई; किंतु उसे फिर से स्मरण करने का कोई उपाय नहीं। अनावश्यक बातें आज-कल मेरे सिर में चक्कर काटती रहती हैं। परंतु जिसकी आवश्यकता होती है, वे तो चेष्टा करने पर भी पास नहीं आतीं। मुझे कुछ विस्मरण का रोग हो गया है क्या? तो मैं लिख लिया करूं।

मैं सब कुछ समीप होने पर चिंतित क्यों रहता हूं। चिंता अनायास घेर लेती है। जान पड़ता है कि मेरा कौटुम्बिक जीवन बहुत ही दयनीय है। ऊपर से तो कहीं भी कोई कभी