पृष्ठ:तितली.djvu/६६

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चुका था और पुलिस ने किसी तरह अपराध प्रमाणित कर दिया था ! साथ ही , इंद्रदेव - जैसे प्रतिष्ठित जमींदार का पत्र भी रिफ़ार्मेटरी भेजने के लिए पहुंच गया था । शैला का सब सामान नील- कोठी में चला गया था । वह छावनी में आई थी । कल के संबंध में कुछ इंद्रदेव से कहने ; क्योंकि इंद्रदेव को उसके भावी धर्मपरिवर्तन की बात नहीं मालूम थी । भीतर से कृष्णमोहन चिक हटाकर निकला । उसने हंसते हुए नमस्कार किया । शैला ने पूछा — बड़ी सरकार कहां हैं ? पूजा पर । और बीबी - रानी? मालूम नहीं कहता हुआ कृष्णमोहन चला गया । शैला लौटकर इंद्रदेव के कमरे के पास आई। आज उसे वही कमरा अपरिचित - सा दिखाई पड़ा! मलिया को उधर से आते हुए देखकर शैला ने पूछा -इंद्रदेव कहां हैं ? एक साहब आए हैं । उन्हीं के पास छोटी कोठी गए हैं ? आप बैठिए । मैं बीबी - रानी से कहती हूं। शैला कमरे के भीतर चली गई! सब अस्त -व्यस्त ! किताबें बिखरी पड़ी थीं । कपड़े खूटियों पर लदे हुए थे । फूलदान में कई दिन का गुलाब अपनी मुरझाई हुई दशा में पंखुड़ियां गिरा रहा था । गर्द की भी कमी नहीं । वह एक कुर्सी पर बैठ गई । मलिया ने लैम्प जला दिया । बैठे - बैठे कुछ पढ़ने की इच्छा से शैला ने इधर - उधर देखा । मेज पर जिल्द बंधी हुई एक छोटी - सी पुस्तक पड़ी थी । वह खोलकर देखने लगी । किंतु वह पुस्तक न होकर इंद्रदेव की डायरी थी । उसे आश्चर्य हुआ - इंद्रदेव कब से डायरी लिखने लगे। शैला इधर - उधर पन्ने उलटने लगी। कुतूहल बढ़ा । उसे पढ़ना ही पड़ा - सोमवार की आधी रात थी । लैम्प के सामने पुस्तक उलटकर रखने जा रहा था । मुझे झपकी आने लगी थी । चिक के बाहर किसी की छाया का आभास मिला — मैं आंख मींचकर कहना ही चाहता था - कौन ? फिर न जाने क्यों चुप रहा । कुछ फुसफुसाहट हुई । दो स्त्रियां बातें करने लगी थीं । उन बातों में मेरी भी चर्चा रही । मुझे नींद आ रही थी । सुनता भी जाता था । वह कोई संदेश की बात थी । मैं पूरा सुनकर भी सो गया । और नींद खुलने पर जितना ही मैं उन बातों का स्मरण करना चाहता , वे भूलने लगी। मन में न जाने क्यों घबराहट हुई ; किंतु उसे फिर से स्मरण करने का कोई उपाय नहीं । अनावश्यक बातें आज - कल मेरे सिर में चक्कर काटती रहती हैं । परंतु जिसकी आवश्यकता होती है, वे तो चेष्टा करने पर भी पास नहीं आतीं । मुझे कुछ विस्मरण का रोग हो गया है क्या ? तो मैं लिख लिया करूं । मैं सब कुछ समीप होने पर चिंतित क्यों रहता हूं । चिंता अनायास घेर लेती है। जान पड़ता है कि मेरा कौटुम्बिक जीवन बहुत ही दयनीय है । ऊपर से तो कहीं भी कोई कभी