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पृष्ठ:तितली.djvu/८२

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मलिया आंचल से आसूं पोंछती हुई चली गई। उसका चाचा भी मर गया था। अब उसका रक्षक कोई न था। तितली ने पूछा—अब रुके क्यों खड़े हो? नील-कोठी जाना था न?

जाना तो था। जाऊंगा भी। पर यह तो बताओ, तुमने यह क्या झंझट मोल ली। हमलोग अपने पैर खड़े होकर अपनी ही रक्षा कर लें यही बहुत है। अब तो बाबाजी की छाया भी हम लोगों पर नहीं है। राजो बुरा मानती ही है। मैंने शेरकोट जाना छोड़ दिया। अभी संसार में हम लोगों को धीरे-धीरे घुसना है। तुम जानती हो कि तहसीलदार मुझसे तो बुरा मानता ही है।

तो तुम डर रहे हो!

डर नहीं रहा हूं। पर क्या आगा-पीछा भी नहीं सोचना चाहिए। बाबाजी तो काशी चले गए संन्यासी होने, विश्राम लेने। ठीक ही था। उन्होंने अपना काम-काज का भार उतार फेंका। पर यदि मैं भलता नहीं हं तो उन्होंने जाने के समय हम लोगों को जो उपदेश दिया था उसका तात्पर्य यही था कि मनुष्य को जान-बूझकर उपद्रव मोल न लेना चाहिए। विनय और कष्ट सहन करने का अभ्यास रखते हुए भी अपने को किसी से छोटा न समझना चाहिए, और बड़ा बनने का घमंड भी अच्छा नहीं होता। हम लोग अपने कामों से ही भगवान को शीघ्र कष्ट पहुंचाने और उन्हें पुकारने लगते हैं।

बस करो। मैं जानती हूं कि बाबाजी इस समय होते तो क्या करते और मैं वही कर रही हूं जो करना चाहिए। मलिया अनाथ है। उसकी रक्षा करना अपराध नहीं। तुम कहां जा रहे हो?

जाने को तो मैं इस समय छावनी पर ही था, क्योंकि सुना है, वहां एक पहलवान आया है, उसकी कुश्ती होने वाली है, गाना-बजाना भी होगा। पर अब मैं वहां न जाऊंगा; नील-कोठी जा रहा हूं।

जल्द आना; दंगल देख आओ। खा-पीकर नील-कोठी चले जाना। आज बसंत-पंचमी की छुट्टी नहीं है क्या?—तितली ने कहा।

अच्छा जाता हूं—कहता हुआ अन्यमनस्क भाव से मधुबन बनजरिया के बाहर निकला। सामने ही रामजस दिखाई पड़ा। उसने कहा—मधुबन भइया, कुश्ती देखने न चलोगे?

अकेले तो जाने की इच्छा नहीं थी, पर जब तुभ भी आ गए तो उधर ही चलूंगा।

भइया! लंगोट ले लूं।

अरे क्या मैं कुश्ती लडूंगा? दुत!

कौन जाने कोई ललकार ही बैठे।

इस समय मेरा मन कुश्ती लड़ने लायक नहीं।

वाह भइया, यह भी एक ही रही। मन लड़ता है कि हाथ-पैर। मैं देख आया हूं उस पहलवान को। हाथ मिलाते ही न पटका आपने तो जो कहिए मैं हारता हूं।

मधुबन अब कुश्ती नहीं लड़ सकता रामजस! अब उसे अपनी रोटी-दाल से लड़ना है। तो भी लंगोट लेते चलने में कोई...

अरे तो क्या मैं लंगोट घर छोड़ आया हूं। चल भी हंसते हुए मधुबन ने रामजस को एक धक्का दिया, जिसमें यौवन के बल का उत्साह था। रामजस गिरते-गिरते बचा।