पृष्ठ:तितली.djvu/८६

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से पर उठा था। उसने कहा—मधुबन! तितली से कह देना, आज दोपहर को मैं उसके यहां भोजन करूंगी; मैं छावनी से होकर आती हूं।

मैं भी साथ चलूं—मधुबन ने पूछा।

नहीं, तुम जाकर तितली से कह दो भाई, मैं आती हूं।—कहकर वह लम्बी डिग बढ़ाती हुई चल पड़ी। छावनी पर पहुंचकर उसने देखा, बिलकुल सन्नाटा छाया है। नौकर-चाकर उधर चुपचाप काम कर रहे हैं।

शैला माधुरी के कमरे के पास पहुंचकर बाहर रुक गई। फिर उसने चिक हटा दिया। देखा तो मेज पर सिर रखे हुए माधुरी कुर्सी पर बैठी है—जैसे उसके शरीर में प्राण नहीं!

शैला कुछ देर खड़ी रही। फिर उसने पुकारा–बीवी-रानी।

माधुरी सिसकने लगी। उसने सिर न उठाया। शैला ने उसके बालों को धीरे-धीरे सहलाते हए कहा—क्या हआ, बीबी-रानी!

माधुरी ने धीरे-से सिर उठाया। उसकी आखें गुड़हल के फूल की तरह लाल हो रही थीं। शैला से आंख मिलाते ही उसके हृदय का बांध टूट गया। आसूं की धारा बहने लगी। शैला की ममता उमड़ आई। वह भी पास बैठ गई।

जी कड़ा करके माधुरी ने कहा—मैं तो सब तरह से लुट गई!

हुआ क्या? मैं तो इधर बहुत दिनों से यहां आई नहीं, मुझे क्या पता। बीबी-रानी! मुझ पर संदेह न करो। मैं तुम्हारा बुरा नहीं चाहती। मुझसे अपनी बीती साफ-साफ कहो न। मैं भी तुम्हारी भलाई चाहने वाली हूं बहन!

माधुरी का मन कोमल हो चला! दुख की सहानुभूति हृदय के समीप पहुंचती है। मानवता का यही तो प्रधान उपकरण है। माधुरी ने स्थिर दृष्टि से शैला को देखते हुए कहा —यह सच है मिस शैला, कि मैं तुम्हारे ऊपर अविश्वास करती हूं! मेरी भूल रही होगी। पर मुझे जो धोखा दिया गया वह अब प्रत्यक्ष हो गया। मैं यह जानती हूं कि मेरे पति सदाचारी नहीं हैं, उनका मुझ पर स्नेह भी नहीं, तब भी यह मेरे मान का प्रश्न था और उससे भी मुझे धक्का मिला। मेरा हृदय टुकड़े-टुकड़े हो रहा है। मैंने कृष्णमोहन को लेकर दिन बिताने का निश्चय कर लिया था। मैं तो यह भी नहीं चाहती थी कि वह यहां आएं। पर जो होनी थी वह होकर ही रही।

माधुरी को फिर रुलाई आने लगी। वह अपने को संभाल रही थी। शैला ने पूछा तो क्या हुआ, बाबू श्यामलाल चले गए?

हां, गए, और अनवरी को लेकर गए। मिस शैला! यह अपमान मैं सह न सकूँगी। अनवरी ने मुझ पर ऐसा जादू चलाया कि मैं उसका असली रूप इसके पहले समझ ही न सकी।

यह कैसे हुआ! इसमें सब इंद्रदेव की भूल है। वह यहां रहते तो ऐसी घटना न होने पाती। शैला ने आश्चर्य छिपाते हुए कहा।

उनके रहने न रहने से क्या होता। यह तो होना ही था। हां, चले जाने से मेरे-मां के मन में भी यह बात आई कि इंद्रदेव को उन लोगों का आना अच्छा न लगा। परंतु इंद्रदेव को इतना रूखा मैं नहीं समझती। कोई दूसरी ही बात है, जिससे इंद्रदेव को यहां से जाना पड़ा। जो स्त्री इतनी निर्लज्ज हो सकती है, इतनी चतुर है, वह क्या नहीं कर सकती? उसी का