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तिलिस्माती मुँदरी
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अध्याय १


हरिद्वार से आगे उत्तर की तरफ़ पहाड़ों में दूर तक चले जाइये तो एक ऐसे मुक़ाम पर पहुंचियेगा जहां पानी की एक मोटी धारा, गाय के मुंँह के मानिंद एक मुहरे की राह, बरफ़ के पहाड़ों से निकल कर बड़े ज़ोर और शोर के साथ एक नीची जगह में गिरती है। यह धारा हमारी गंगामाई है, उसके निकलने के मुहरे को गौमुखी कहते हैं और उस सारी जगह का नाम गंगोत्री है।

गंगोत्री बड़ी सुहावनी जगह है। बर्फ़िस्तान से आती हुई गंगाजी की सफ़ेद धारा देखने में बहुत खूबसूरत मालूम होती है और उसके उतरने की आवाज़, पहाड़ों में गूंजती हुई, कानों को बहुत प्यारी लगती है। गंगोत्री हिन्दुओं का बड़ा तीर्थ है। देस यानी मैदान के रहने वालों के लिये वहां जाने का पहाड़ी रास्ता बड़ा मुशकिल है और जिस ज़माने का किस्सा इस किताब में लिखा जाता है उस ज़माने में और भी मुशकिल था, क्योंकि अब तो कहीं कहीं सड़कें और पुल भी बन गये हैं, पहले सिर्फ तंग पगडंडियां थीं जिन पर से रास्तागीरों को पैर फिसल कर पहाड़ के नीचे खड्ड में गिर जाने का डर रहता था; और गहरी नदियों को उतरने के लिये उनके ऊपर एक किनारे से दूसरे किनारे तक मोटे रस्से लगे रहते थे जिन्हें झूला कहते थे, उनपर चलने से वह