पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/१४१

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तुलसी का जन्मस्थान खे रीति आपनी जो होइ सोई कीजै बलिं, तुलसी तिहारो घरजायउ है घर को ॥१२२|| [कवितावली, उत्तर०] हमारी बुद्धि जहाँ तक काम करती है और हमारे ज्ञान का जहाँ तक प्रसार है वहाँ तक तो हम निर्विवाद रूप में धड़ल्ले से कह सकते हैं. कि हो न हो इसमें तुलसी- घर का गुलाम दास के घर का स्फुट उद्घोप है । पर करें कया ? कहीं से कोई प्राध्यापक जी बीच ही में बोल पड़ते हैं कि अरे! ऐसा अर्थ लगाने से घोर अनर्थ हो जायगा । तपस्वी करें क्या? उनके सामने कबीर का यह पदवाधक रूप में खड़ा है- फरमानु तेरा सिर ऊपरि फिरि नफरत वीचार। तुही दरीमा तुही करीभा तुझै तै निसतार ।। बंदे बंदगी इकतीआर । साहिबु रोसु धरउ कि पिभारु ॥ १ ॥ नाम तेरा आधार मेरा जिउ फूलु जई है. नारि। फहि कबीर गुलामु घर का जीआइ भावै मारि ॥२॥ [संत कबीर, पृष्ठ ७२] और अर्थ किया गया है इसका- तेरा आज्ञा-पत्र मेरे सिर-माथे है । उस पर फिर मैं क्या विचार करूँगा? तू ही,नदी है, तू ही कर्णधार है और तुझी से मेरा निस्तार होगा । ऐ बंदे, तेरा अधिकार तो केवल : वंदना में ही है। स्वामी चाहे क्रोध करे या प्यार करे । तेरा नाम ही मेरा आधार है। (इसका परि- णाम यह होगा कि ) आग भी फूल की भाँति हो जायगी। कबीर ..... .