पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/१६४

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तुलसी की जन्म-दशा विहँसि राम कह्यो सत्य है सुधि. मैं हूँ लही. है। मुदित माय नावस बनी तुलसी अनाथ की परी रघुनाथ हाथ सही है ||शा२७६॥ [विनयपत्रिका जी। रघुनाथ' की 'सही' तुलसी को यों ही नहीं मिल गई। नहीं, इसके निमित्त तो उनको बहुत कुछ करना पड़ा। यहाँ तक कि कभी अपने नाथ से कुछ खीम कर कहना पड़ा- मेरे जान जब तैं हौं जीव है जनम्यो जग, तब तें वैसाह्या दाम लोह कोह काम को। मनोतिनहीं की सेवा, तिनहीं सौं भाव नीको, बचन बनाइ फहौं, 'हाँ गुलाम राम को।' नाथ हून अपनायो, लोक झूठी दै परी, पै प्रभु हू ते प्रबल प्रताप प्रभु नाम को। आपनो भलाई भलो कीजै तो भलाई, 'न तो तुलसी को खुलैगो खजानो खोटे दाम को ॥७॥ [कवितावली, उचर०] किंतु तुलसी 'प्रभु' की अपेक्षा 'प्रभु नाम' को अधिक महत्त्व देते हैं और उसी के भरोसे 'कराल कलि- भक्ति का वल. काल भूमिपाल' को 'चुनौती दे ललकार कर कह जाते हैं- सुनिए कराल कलिकाल भूमिपाल तुम, जाहिं घालों चाहिए कहौधौं राखै ताहि को । हौं तौ दीन दूबरो, त्रिगारो ढारो रावरो न, मैं हूँ तें हू ताहि को सफल जग जाहि को । काम फोह लाइ कै देखाइयत आँखि मोहिं; एते मान-अकस कीवे को आपु माहि को। - ?