पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/२३०

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तुलसी की जीवन-यात्रा २२७ आलोचना व्यर्थ होगी। बनारसीदास 'दवा-दारू पर उतारू हो गए तो ठीक पर उन्होंने उसे खा भर लेने के अतिरिक्त किया क्या ? यदि तुलसीदास उनके पास किसी व्यक्ति को उक्त 'औषध' के लिए भेजते तो 'बनारसीदास' तो उसका क्या उस दवा-दारू- दाता का पता भी नहीं बता पाते । कारण कि उन्हीं का तो वचन है- इस अवसर ही नापत कोय । औषध पुरी खवावै सोय । और इधर 'विशेष विश्वासी' तुलसीदास की स्थिति यह है कि कोई उपाय नहीं छूटा । किस अनुताप से कहते हैं- आपने ही पाप ते त्रिताप ते, कि साप ते, बड़ी है बाहुवेदन कही न सहि जाति है। औषध अनेक जंत्र मंत्र टोटकादि किए, बादि भए देवता, मनाए अधिकाति है । करतार, भरतार, हरतार, कर्म, काल, को है जगजाल जो न मानत इताति है। चेरो तेरो तुलसी 'तू मेरो' मह्यो रामदूत, ढील तेरी, बीर मोहि पीर ते पिराति है ॥३०॥ [ हनुमानवाहुक] 'औषध अनेक' की छाया में अब पाठक भलीभाँति देख सकते हैं कि वस्तुतः डाक्टर साहब का निदान कितना सटीक है । भक्त की भाषा में तो 'भगवान' ही 'नापित' के वेष 'दवा-दारू' का काम कर जाते थे। विश्वास न हो तो किसी भक्तमाल से पूछ देखें। इधर-उधर के विवाद से कोई लाभ नहीं पता नहीं किसने महायाना कर कहा था-