पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/२३१

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२२८ तुलसी की जीवन-भूमि राम नाम जस बरनि के, भयो चहत अव मौन । तुलसी के मुख दीजिए, अब ही तुलसी सोन।। किंतु कहते हैं कि चलते-चलते किसी को देख कर कमी गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी कुछ उल्लास में आकर कहा था- कुंकुम रंग सुअंग जितौ, मुखचंद सों चंद सौ होड़ परी है । चोलत बोल समृद्धि चुवै, अवलोफत सोच विपाद हरी है । गौरी फि गंग विहंगिनि वेष, कि मंजुल मूरति मोद भरी है । पेखि सप्रेम पयान समय सत्र सोच विमोचन छेमकरी है ॥१८॥ [कवितावली, उत्तर०] क्षेमकरी' का यह दर्शन महाप्रयाण के समय हुआ अथवा नहीं, इसका निश्चय कौन करे ? परंतु तृतीय पंक्ति की पुकार बहुत कुछ है इसी पक्ष में । जो कुछ भी हो, और जो कुछ भी कहा जाय, उसका समाधान तुलसी तो करने से रहे। रहे संत-महंत वा महात्मा । सो उनकी भी कौन कहे ? पता नहीं, भवानीदास ने भी इसका वर्णन क्यों नहीं किया। उनका 'चरित्र' पूरा नहीं है, यह भी कहने को जी नहीं होता। उनका इष्ट क्या है ? कहना कठिन दिखाई देता है। कारण यह कि आप के 'चरित्र' का अंत है- संत सर सरद सुवसंत सुरसाखिन को, कंतर निरंतर अनंत ज्ञानपथ को। भानुकुल मुकुट सुमाल मुनि मानिन को, पाप खल काल प्रतिपालक सुपथ को ।। जातुधान तमभानु देवघान मघवान, सुकनि तरन थान जान मनमथ को।