पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/२६५

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२६२ तुलसी की जीवन-भूमि अयोध्या । लौकिक और पारलौकिक दृष्टि से उसका जो महत्त्व है उसका साक्षात्कार करा गया था एक प्राणी जिसे कहते हैं लोग रामानंद । उसकी गति-विधि का यथार्थ पता क्या ? पर उसने 'अयोध्या' को महत्त्व दिया इसमें संदेह किसे ? उसके भाव' चाहे जो रहे हों, पर उससे देश की जो भाषा बनी उसे कौन नहीं जानता ? अँगरेज को उसका पता लगा । उसने उसकी शक्ति को समझा पर कहीं जन-समाज में उसको देख न सका । चिंता दूर होने ही को थी कि उसकी दृष्टि में आ गया कोई 'तुलसी' । जिससे वह काँप उठा और समझ समझ कर सोचने लगा कि सचमुच इस देश का भयंकर प्राणी है यह । इसकी वाणी सर्वत्र काम करती है। गोला-बारूद से यह परे है। तो वस इसी पर दृष्टि रखो और इसे कहीं जमने न दो और जमाओ भी तो कहीं ऐसा जमाओ कि 'रामपुरी' से इसका कोई सीधा नाता न रहे और न परंपरा से इसका कोई मोह । बस इसके 'जन्म-स्थान' की खोज लगी और उसी में वह खोसा गया । पता नहीं स्वतंत्र भारत को कभी उसका पता लगेगा भी वा नहीं ? परंतु इतना तो निर्विवाद है श्री विलसन साहब ने मुक्त कंठ से स्वीकार किया कि इसके ग्रंथों का प्रभाव एक बड़े हिंदू समुदाय पर समस्त संस्कृत ग्रंथों के सामूहिक प्रभाव से कहीं अधिक है । और गजेटियर भी तो कुछ इसी प्रकार की भाषा में कहता है कि शासन का अंकुश ढीला हुआ नहीं कि फिर अयोध्या की समृद्धि बढ़ी और उसकी इस वृद्धि में कुछ योग था रामचरितमानस' की लोकप्रियता का। इतिहास की गहराई में उतरे विना ही हम सीधी भाषा में कह सकते हैं कि अँगरेज तुलसी से सदा सशंक रहा है और प्रियर्सन को उसकी भक्ति में जो ईसा का प्रसाद दिखाई दिया है वह कूटनीति से खाली नहीं। उनका उस पर अंत तक अडिग रहना कुछ अर्थ रखता है।